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________________ प्राक्कथन एम.ए. (संस्कृत) के छात्र रूप में भारतीय दर्शनशास्त्र का अध्ययन करते समय न्यायवैशेषिक दर्शन के प्रति मेरी विशेष मचि जागरित हुई। तत्पश्चात् एम. ए छात्रों को 'न्यायभाष्य' और 'प्रशस्तपादभाष्य' पढ़ाते रहने से न्यायवैशेषिक के प्रति मेरी रुचि इतनी बढ़ी कि इसी दर्शन के किसी विषय पर शोधकार्य करने का निश्चय किया। म. म. गोपीनाथ कविराज का 'Gleanings from the History and Bibliography of the Nyaya-Vaisesika Literature ' यह प्रन्थ पढ़ते समय निम्नलिखित पंक्तियों ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया-"As far as our present knowledge extends it may be said with justice that Bhāsarvajña's Nyāyasāra stands unique in the history of the Mediaeval School of Nyāya Philosophy in India. But the work has not been thoroughly examined yet,......, ......” भारतीय दर्शन के अन्यान्य ग्रन्थों तथा लेखों में भी आचार्य भासर्वज्ञ के अभिनव दृष्टिकोण की विशेष चर्चा पढ़ने को मिली । इस अध्ययनक्रम के पश्चात् मैंने “भासर्वज्ञ के 'न्यायसार' समालोचनात्मक अध्ययन" यह विषय शोध के लिये चुना। जहाँ तक इस विषय पर किये गये अध्ययन का प्रश्न है, भारतीय दर्शन तथा न्यायशास्त्र के इतिहास-सम्बन्धी ग्रन्थों में न्यायसार की विषयवस्तु तथा भासर्वज्ञ का सामान्य परिचय प्राप्त होता है। प्रो. देवघर तथा श्री वी. पी. वैद्य ने स्वसम्पादित न्यायसार के संस्करणों में 'नोट्स' मंयोजित किये हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित कतिपय लेखों में भासर्वज्ञ के काल तथा उनकी कृतियों पर प्रकाश डाला गया है । कृत और क्रियमाण अनुसन्धानसम्बन्धी प्राप्य सूचनाओं और न्यायवैशेषिक के विद्वानों से विचारविमर्श से मुझे विदित हुआ है कि प्रस्तुत विषय पर इस रूप में कोई अनुसन्धान नहीं किया गया है। अपि च, उपर्युक्त लगभग समस्त सामग्री न्यायसार की स्वोपज्ञ विवृति 'न्यायभूषण' के प्रकाशन से पहिले लिखी गई थी, अतः भासर्वज्ञ के मत का सम्यक् विवेचन नहीं हो सका । 'न्यायभूषण' के प्रकाशन के पश्चात इस विषय पर शोध की महती आवश्यकता प्रतीत हुई। इसी दिशा में यह लघु प्रयास है। यह शोधप्रबन्ध नौ विमर्शो में विभक्त है। 'परिचय' नामक प्रथम विमर्श में आचार्य भासर्वज्ञ के नाम, देश-काल, जयन्त भट्ट, वाचस्पति मिश्र तथा भासर्वज्ञ के पूर्वापरकालवर्तित्व, विद्यास्रोत, व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने तथा कृतिपरिचय देने का प्रयास किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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