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न्यायसार
-इस उत्तरार्ध में स्पष्ट कर दिया है। अतः भासर्वज्ञ ने न्यायसार में केवल प्रमाणों का ही प्रतिपादन किया है, यह कथन संगत प्रतीत नहीं होता।
आचार्य भासर्वज्ञ के इस प्रकरण ग्रन्थ का न्यायशास्त्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने इसे 'संग्रह, 'न्यायसदर्थसंग्रह' संज्ञा से भी व्यवहृत किया है। यह ग्रन्थ प्रत्यक्ष. अनुमान और आगम-इन तीन परिच्छेदों में विभक्त है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में पाशुपताचार्य भासर्वज्ञ ने मंगलाचरण इस प्रकार किया है
'प्रणम्य शम्भु जगतः पति परं, समस्ततत्त्वार्थविदं स्वभावतः । शिशुप्रबोधाय मयाऽभिधास्यते,
प्रमाण-तभेदतदन्यलक्षणम् ॥ प्रमाणों के त्रिविध विभाग (प्रत्यक्ष-अनुमान-आगम) के कारण यह ग्रन्थ सांख्य' और जैन दर्शन के अनुरूप तथा उपमान प्रमाण के साथ उक्त तीन प्रमाण माननेवाले अक्षप गद-दशेन तथा प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण मानने वाले बौद्ध दर्शन के विरुद्ध है। इस ग्रन्थ में प्रयोजन और सिद्धान्त इन दो को छोड़कर अन्य सभी अक्षपादोक्त पदार्था का निरूपण किया गया है। उपनय, निगमन. निर्णय, छल, जाति, निग्रहस्थान का निरूपण प्रायः सत्रकार के अनुसार ही हैं । अन्य पदार्थों के निरूपण में आचार्य भासर्वज्ञ की अनेक विशेषताएं अभिव्यक्त हुई हैं जिनका विवेचन. प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में आगे के विमर्शो में किया जा रहा है।
आचार्य भासर्वज्ञ के इस प्रकरण ग्रन्थ पर कुल १८ टीकाएँ लिखी गई, ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। इससे यह ज्ञात होता है कि परवर्तीकाल में इसके अध्ययनअध्यापन की समृद्ध परम्परा रही है । ये सभी १८ टीकाएं उपलब्ध हैं उनमें भी कुछ प्रकाशित हैं और अन्य भाण्डागारों में मातृकापि हत हैं ।
न्यायभूषण 'न्यायभूषण' 'न्यायसार' की प्राचीनतम तथा विस्तृत स्वोपज्ञ व्याख्या है। आचार्य भासर्वज्ञ ने इसे 'संग्रहवार्तिक' नाम से भी अभिहित किया है। दार्शनिक 1 संग्रहे स्वस्याप्यनभिधानं विस्तरपरिहारार्थम् ।-यायभूषण, पृ. ३ ४ ५ 2. प्रवक्ष्यते न्यायसदर्थसंग्रहः [---न्यायभूषण, पृ. 1. 3. न्यायसार, पृ. १. 4. भासर्वज्ञश्च सांख्यस्त्रितयम् ।- मानमेयोदय, पृ. १०. 5. (अ) न्यायसाराभिधे तक टीका अष्टादश स्फुटाः ।-षड्दर्शनसमुच्चय (राजशेखरकृत)
(ब) मासर्वज्ञप्रणीते न्यायसारेऽष्टादश टीकाः - षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति, पृ. ९४. 6 न्यायभूषणे संग्रहवार्तिके -न्यायभूषण, पृ. १८७
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