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परिचय
जगत् में यह ग्रन्थ 'भूषण' तथा 'न्यायभूषण" नाम से विश्रुत है । दार्शनिकों ने न्यायसार की अठारह टीकाओं में इसी को मुख्य तथा प्रसिद्ध बतलाया है । इस पर गदाधर मिश्र ने 'न्यायभूषणप्रकाश' तथा वासुदेवसूरि ने 'न्यायभूषणभूषण' नामक टीका लिखी, ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है । * वासुदेव सूरिने इसको गम्भीरता और प्रौढ़ता को लक्षित कर 'महाम्बुधि० संज्ञा दी है । कई शताब्दियों से यह ग्रन्थ लुप्त-सा था । प्राचीनन्याय के विशाल साहित्य में इस ग्रन्थरत्न का अभाव असह्य था, अतः जरद्गवीगवेषणा निष्णात विद्वान् इसकी खोज में लगे रहे। 'जिन खोजा तिन पाइया इस उक्ति के अनुसार भूषण की गवेषणा में सतत संलग्न विद्वानों को सफलता मिली और सन् १९६८ में पहली बार स्वामी योगीन्द्रानन्द के सम्पादकत्व में षड्दर्शनप्रकाशन प्रतिष्ठान, वाराणसी से इस ग्रन्थ का प्रकाशन हो गया है । वस्तुतः न्यायदर्शन में यह उल्लेखनीय उपलब्धि है ।
'न्यायभूषण' आन्वीक्षिकीविद्या का भूषण है । इसमें प्राञ्जन्ट भाषा में विषयों का प्रतिपादन किया गया है । आचार्य भासर्वज्ञ ने इसमें अपनी समस्त अभिनव मान्यता ओंका युक्तिपुरःसर स्पष्टीकरण किया है । यहां उनकी दार्शनिक प्रौढ़ता पूर्णतया परिलक्षित होती है । इसमें मङ्गलाचरण करते हुए आचार्य भासर्वज्ञ ने कहा है
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उमापतिं सर्वजगत्पति सदा, प्रणम्य निर्वाणदमीश्वरं परम् । गुरुंश्च सर्वाननुमोक्षसिद्धये, प्रवक्ष्यते न्याय सदर्थसंग्रहः ॥
वस्तुतः न्यायशास्त्र में यह एक विशिष्ट ग्रन्थ है । न्यायशास्त्र के परम्परागत सिद्धांतों की नूतन तथा समालोचनात्मक व्याख्या इसमें की गई है । समानतन्त्र वैशेषिकशास्त्र से विरोध न्यायशास्त्र में सबसे पहले इसी प्रन्थ में प्राप्त होता है । दिङ्नाग, नागार्जुन धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर आदि धुरन्धर बौद्ध विद्वानों के सिद्धांतों का प्रखरतर तर्कों से प्रचण्ड खण्डन किया गया है । जैन और चार्वाक आदि दार्शनिकों के मतों का
1. भूषणे त्वाचष्टे । -न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, पृ. १९.
2. तथा च न्यायभूषणः । ज्ञानश्रीनिबन्धावली, पृ. ८७.
3. (अ) तासु मुख्या न्यायभूषणाख्या । षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति, पृ. ९४.
(ब) न्यायभूषणनाम्नी तु टीका तासु प्रसिद्धिभाक् । षड्दर्शनसमुच्चय ( राजशेखरकृत) 4. ( अ ) न्यायभूषण प्रकाशेऽभिहित गदाधर मिश्रेण । न्यायरत्नद्युतिमालिका, पृ. ५४. (ब) प्रतिज्ञाविशेषणहान्यादयोऽस्माभिर्न्यायभूषणभूषणेऽभिहितास्तत्रैव ज्ञातव्याः । - न्यायसारपदपश्चिका, १. ८१.
5. न्यायभूषण महाम्बुधौ बुधा येऽलमाचरितुं न जानते । कृता न्यायसारपञ्चिका ॥ न्यायसारपदपञ्चिका, पृ. ९८.
तत्कृते कृतिरियं मया
6. न्यायभूषण, पृ. १.
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