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________________ १२४ न्यायसार परमाणु का नित्यत्व सिद्ध है, अतः परमाणु के अनित्यत्व का साधक मूर्तत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट अर्थात् बाधित है । परमाणु के नित्यत्व का साधक परमाण्वनुमान ही है, वह बलवान् इसलिये है कि परमाणुसाधक अनुमान का अप्रामाण्य मानने पर प्रकृत अनुमान में अनित्यत्व के आश्रय धर्मी परमाणु का ही अभाव होने से भूर्तत्व हेतु आश्रयासिद्ध हो जायेगा । यदि परमाणुसाधक अनुमान का प्रागण्य स्वीकार किया जाय, तो वही परमाणु के नित्यत्व का भी साधक है। अतः अनित्यत्व. साधक मूर्तत्वानुमान उससे बाधित हो जायेगा । परमाणुमाधक अनुमानवाक्य इस प्रकार है-अणुपरिमाण का तारतम्य कहीं विश्रान्त होतो है. परिमाण का तारतम्य होने के कारण, महत्परिमाण के तारतम्य की तरह । अत. जैसे महत्परिमाण के तारतम्य की विश्रान्ति आकोशादि में है, उसी प्रकार अणुपरिमाण के तारतम्य की विश्रान्ति जहां होती है, उसे ही परम अणु होने के कारण परमाणु कहते हैं । उसको नित्य मानने पर उससे भी अधिक अणुपरिमाण के होने से अणुपरिमाण की विश्रान्ति. धामरूप से परमाणु की सिद्धि नहीं होगी। अतः परमाणुसाधक अनुमान ही परमाणु के नित्यत्व का भी साधक है। ३. आगमविरुद्ध : 'ब्राह्मणेन पेयं सुरादि, दुबद्रव्यत्वात, क्षीरवत् ।' यहां 'द्रवद्रव्यत्व' हेतु द्वारा साध्यमान ब्राह्मणकर्तृक सुरापान "गोळी माध्वी च पैष्टी च विज्ञेया त्रिविधा सुग । यथैवेका न पातव्या तथा सर्वा द्विजोत्तमः ॥ सुरा वै मलमन्नानां पाप्मा च मलमुच्यते ।। तस्माद् ब्राह्मणराजन्यो वैश्यश्च न सुरां पिबेत् ॥1 इस आगम प्रमाण द्वारा सिद्ध ब्राह्मणकर्तक सुरापाननिषेध से बाधित है । यहां पानमात्र साध्य नहीं है, अपितु पेय सुरा का पान ब्राह्मण के लिये पाप का कारण नहीं होता, यह साध्य है । क्षीरादिपान में भी अपापनिमित्तत्व केवल आगम से ही ज्ञेय है, न कि प्रत्यक्ष व अनुमान प्रमाण से। अतः अपने अविषयभूत ब्राह्मणकर्तृक सुरोपान की अपापनिमित्तता में प्रवृत्त अनुमान ब्राह्मणकर्तृक सुरापान के पोपनिमित्तत्व बोधक आगम से बाधित हो जाता है । आत्मा के रूपरहितत्व तथा व्यापकत्व का क्रमशः आत्मा के आदित्यवर्णरूप रूपवत्व तथा अंगुष्ठमात्रत्वरूप परिमितत्व के बोधक 'आदित्यवर्ण तमसः परस्तात," अंगुष्ठमात्रः पुरुषः' इत्यादि आगमों से बाधित नहीं होता, क्योंकि उसका तात्पर्य आत्मा के ज्ञानमयत्वादि के बोधन में है न कि आदित्यवर्णत्वरूप रूपवत्वादि के बोधन में और आत्मा के रूपरहितत्व व व्यापकत्व 1. न्यायसारपदपचिका से उधृत, पृ. ४६. 2. श्वेताश्वतरोपनिषद् , ३/८. 3. वही, ३/१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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