________________
अनुमान प्रमाण
पुनर्वचन, क्योंकि प्रतिज्ञा साध्यनिर्देशरूप होती है, जबकि निगमन सिद्धनिर्देशरूप | अर्थात् प्रतिज्ञावाक्य में प्रतिज्ञात अर्थ का साध्यरूप से निर्देश है जबकि निगमन में उसका सिद्धरूप से निर्देश होता है । अतः निगमन की प्रतिज्ञा से गतार्थता नहीं होती । तात्पर्यटीका में वाचस्पति मिश्र 'हेत्वपदेशात् प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम् ' इस लक्षण का उपपादन करते हुए कहते हैं कि यद्यपि नियमन सिद्धनिर्देश है तथा प्रतिज्ञा साध्यनिर्देश, तथापि जो अर्थ प्रतिज्ञा में साध्य था, वही अर्थ निगमन में सिद्ध होता है । इस प्रकार साध्यत्व व सिद्धत्व अवस्था वाले अर्थ की एकता के कारण निगमन में प्रतिज्ञा का उपचार कर निगमन को प्रतिज्ञा का पुनर्वचन कह दिया गया है । "
,
8
इस प्रकार उपमा
"
,
आचार्य भासर्वज्ञ ने सूत्र में 'प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनम् इव मानकर 'सहेतुकं प्रतिज्ञाववचनं निगमनं 14 यह निगमन का लक्षण माना है । प्रतिज्ञावत्' शब्द का प्रयोग कर उन्होंने वार्तिककारादिकृत पूर्वोक्त विचार के लिये अवकाश ही नहीं रखा है। इससे यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि निगमन प्रतिज्ञा के तुल्य है, प्रतिज्ञा से अभिन्न नहीं । सूत्रस्य ' हेत्वपदेशात् ' के अर्थ पर विचार करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि हेत्वपदेश शब्द 'तम्मात् इत्याकारक हेत्वनुवाद का बोधक है ।" सूत्र में 'हेत्वपदेशात्' पद में हेत्वर्थक पंचमी है । हेत्वर्थक पंचमी मानने पर हेत्वर्थक तृतीया विभक्ति का प्रयोग क्यों नहीं किया गया, इस आशंका का निराकरण करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि यद्यपि हेत्वर्थ में तृतीया व पंचमी दोनों -विभक्तियों का प्रयोग हो सका है, तथापि 'हेत्वपदेशेन ' इत्याकारक तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने पर सहार्थ में यहां तृतीया है, ऐसी भ्रान्ति संभव है, तन्निराकरणार्थ तृतीया का प्रयोग न कर पंचमी विभक्ति का प्रयोग किया है । सहार्थ में तृतीया मानने पर देवनुवाद के साथ प्रतिज्ञा का पुनर्वचन निगमन कहलायेगा ऐसी स्थिति में हेतुरूप अवयव के बाद ही हेत्वनुवाद के साथ प्रतिज्ञा के पुनर्वचनरूप निगमन का प्रयोग होना चाहिए, यह आशंका संभावित है । तन्निराकरणार्थ पंचमी का प्रयोग किया गया है ।"
1. न्यायवार्तिक, १३/३९
2. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, १/१/३९
3. प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनमिवेत्युपमात्र द्रष्टव्या । -- न्यायभूषण, पृ. ३२७
१४१
4. न्यायसार (पूना, १९२२), पृ. ४०
5. वयं तु नमस्तस्मादित्ययं हेत्वनुवादो हेत्वपदेश: 1-न्यायभूषण, पू. ३२७
6. देवपदेशेन सहेति प्रान्ते मोहनिवृत्तये तृतीयास्थाने पंचम्युक्ता, अन्यथोदाहरणात् प्रागेव हेत्व देशेन सह प्रतिज्ञायाः पुनर्व्वचनं प्रयोक्तव्यमित्याशंकापि स्यात् । न्यायभूषण, पृ. ३२७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org