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________________ १४२ न्यायसारं निगमन-प्रयोजन ___ भासर्वज्ञ ने निगमन के प्रयोजन पर भी विचार करते हुए कहा है कि कतिपय विद्वान् अनुमानवाक्य की परिसमाप्ति के लिये निगमन का अभिधान आवश्यक है, ऐसा मानते है, किन्तु यह उचित नहीं है, क्योंकि वाक्य-समाप्ति के लिये निगमन के कथन में कोई प्रयोजन दृष्टिगोचर नहीं होता। यात्पर्य यह है कि जहां अनुमान के द्वारा अर्थ का प्रतिपादन अभीष्ट होता है, वहां अविनाभूत लिंग का ही कथन उपर्यक्त है, उसीसे साध्य की अवगति हो जाती है। इसीलिये कहा भी है'विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः ।' अर्थात् विद्वानों के लिये केवल अविनाभावि. 'लिंगवचनरूप हेतु ही पर्याप्त है, क्योंकि उससे हो उनको साध्यसिद्धि हो जाती है। अविनाभूत लिंग की प्रतीति होने पर 'तस्माद् इदम् इत्थम्' इत्याकारक प्रतीति हो ही जाती है। अतः निगमन को कोई आवश्यकता नहीं । इस शंका का निराकरण करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि निगमन निरर्थक नहीं है, क्योंकि वह साध्यविरुद्ध को असत्ता के प्रतिपादक प्रमाण का सूचक है। तात्पर्य यह है कि असत्प्रतिपक्षत्व का प्रतिपादन न करने पर अविनाभाव भी असन्दिग्ध रूप से अप्रतिपादित हो रह जाता है, क्योंकि पक्षधर्मत्वादि की तरह असत्प्रतिपक्षत्व भी हेतु का रूप है और जिस प्रकार पक्षधर्मत्वरूप हेतुस्वरूप का प्रतिपादन हेतुवाक्य का प्रयोजन है, उसी प्रकार असत्प्रतिपक्षत्वरूप हेतुस्वरूप का प्रतिपादन निगमन का प्रयोजन है । जैसे-'तस्माद् अनित्यः' यह निगमन 'अनित्य एव' इस नियम का बोध कराता है । अनित्यत्व का अवधारण कराने वाले इस निगमन से 'न नित्यः' इत्याकारक प्रतिपक्षसंज्ञक साध्यविरुद्ध को असत्ता का अनुमान होता हैं । असत्प्रति. पक्षत्व के अवधारण से यह भी ज्ञात हो जाता है कि हेतु न तो विरुद्धाव्यभिचारी है और न प्रकरणसम । यदि यह कहा जाय कि प्रतिपक्षाभाव की सिद्धि प्रमाणान्तर से हो सकती है, न कि वचनमात्र निगमन से । क्योंकि वचनमात्र निगमन कोई प्रमाण नहीं है और किसी वस्तु की सिद्धि प्रमाण से होती है, न कि 'प्रतिपक्ष का अभाव है' इत्या. कारक वचनमात्र से इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि ऐसा मानने पर पक्षधर्मत्व के प्रतिपादनार्थ भी प्रमाणान्तर मानना होगा, क्योंकि हेतुरूप वचन से पक्षधर्मत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि इस दोष के परिहारार्थ हेतु, उदाहरणादि को पक्षधर्मत्व का साधक प्रमाण माना जाता है, तो निगमन को भी प्रतिपक्षाभावसाधक प्रमाण मानने में क्या आपत्ति है ?* 1. प्रमाणवार्तिक, का. ३७, पृ. २६८ 2. न्यायसूषण, प, ३२५ 3. यस्मान्नेदमनर्थकं साध्यविरुद्धाभावप्रतिपादकप्रमाणसूचकत्वादस्य । ----न्यायभूषण, पृ. ३२७ 4. न्यायभूषण, पृ. ३२८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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