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न्यायसारं
साध्यसिद्धि
उस व्याप्ति की सिद्धि हो जाती है, क्योंकि धूम हेतु पर्वतादि पक्ष के लिये उपात्त है न कि महानसादि में साध्यसिद्धि के लिये, वहां वो प्रत्यक्षतः साध्य की सिद्धि है । अतः उसीसे पक्षगत साध्यसाधन का अविनाभाव सिद्ध हो जोने पर उपनयवचन को आवश्यकता नहीं, ' तथापि घूमादि हेतु का विषय वहूनि पर्वत में अबाधित है, इस तथ्य को बतलाने के लिये उपनयवचन की अपेक्षा है । अर्थात् जैसे उत्पाद्य घटादि अनित्य हैं और उनके अनित्यत्व का प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाध नहीं होता, इसी प्रकार कृतकत्व हेतु के शब्दादिपक्षगत अनित्यत्व विषय का प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाध नहीं है, इसका ज्ञापन उपनयवाक्य से ही हो सकता है । उदाहरणवाक्य तो पक्षभिन्न घटादि में अनित्यत्व का बाघ प्रत्यक्षादि प्रमाण से नहीं है, यह बता सकता है, न कि शब्दातिपक्षगत अनित्यत्व का । उपर्युक्त रीति से जिस प्रकार साधम्र्योपनय कृतकत्वादि साधन का विषय शब्दगत अनित्यत्व प्रत्यक्षादि प्रमाण से अबाधित है, इस बात का प्रस्थापक है, उसी प्रकार वैधम्र्योोपनय भी इस बात का प्रस्थापक है । जैसे, आकाशादि नित्य हैं, अतः अकृतक अर्थात् अनुत्पाद्य हैं और उनका नित्यत्व प्रमाण सिद्ध है । उस प्रकार शब्द अनुत्पाद्य नहीं है, क्योंकि वह उत्पाद्य है और उत्पाद्य वस्तु कभी किसी प्रमाण से नित्य सिद्ध नहीं है, अतः शब्द में कृतकत्व अनित्यत्व से अविनाभूत है, यह सिद्ध हो जाता है ।
निगमननिरूपण
"
उपनय के पश्चात् निगमन का निरूपण क्रमप्राप्त है । निगमन पंचावयवोपपन्न अनुमानवाक्य का अन्तिम अवयव है । इसके द्वारा प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण और उपनय एक विषय से सम्बद्ध किये जाते हैं । इसीलिये भाष्यकार ने कहा हैनिगम्यते अनेनेति प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनया एकत्रेति निगमनम् । निगम्यन्ते समर्थ्यन्ते सम्बद्ध्यन्ते' (न्यायभाष्य, १|१|३५ ) | निगमन के अभाव में प्रतिज्ञादि का प्रकृत विषय से सम्बन्ध अभिव्यक्त नहीं हो सकता, एक अर्थ की सिद्धि के लिये उनकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । " सूत्रकार गौतम ने निगमन का लक्षण - 'हेत्वपदेशात् प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम् " यह किया है । वार्तिककार ने इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि प्रतिज्ञा के विषयभूत अर्थ को प्रत्यक्षादिप्रमाणमूलक प्रतिज्ञादिवाक्यों के द्वारा सिद्धि होने पर उस प्रतिज्ञात सिद्ध अर्थ का साध्यविपरीत प्रसंग के प्रतिषेधार्थ जो पुनः अभिधान है, वह निगमन है, न कि प्रतिज्ञा का ही 1. ननु चोपनयवचनमनर्थकं व्याप्तेरुदाहरणेनैव प्रतिपादितत्वात् ।
अन्तर्व्याप्तिसिद्ध्यर्थमिति चेत्, हेतुवचनात्तत्सिद्धेः ।
-न्यायभूषण, पृ. ३२५
2. न्यायभूषण, पृ. ३२६
3. निगमनाभावे चानभिव्यक्तसम्बन्धानां प्रतिज्ञादीनामेकार्थेन प्रवर्तनं तथेति प्रतिपादनं कस्येति ।
- न्यायभाष्य, १1१/३९
4. न्यायसूत्र १।१।३९
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