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________________ अनुगान प्रमाण की सिद्धि होने पर 'उपलब्धधूमवत्' दृष्टान्त की सिद्धि होती है इस प्रकार अन्योन्याश्रयदोष की प्रसक्ति होने से व्याप्तिग्रहण मानस प्रस्यक्ष से होता है, इस सिद्योन्त का प्रतिपादन भासर्वज्ञ ने किया है । लिङ्गद्वैविध्य साध्यज्ञापक अर्थात् साध्यानुमापक साधन को लिङ्ग कहते हैं। वह दृष्ट तथा सामान्यतोदृष्ट भेद से दो प्रकार का है । भासर्वज्ञ के अनुसार अनुमानसूत्र में 'च' शब्द इन दोनों भेदों का सूचक है।' उनमें प्रत्यक्षयोग्य अर्थ का अनुमापक लिङ्ग दृष्ट कहलाता है। जैसे धूम प्रत्यक्ष योग्य वह निरूप अर्थ को अनुमान कराता है, अतः वह दृष्ट है तथा स्वभावतः विप्रकृष्ट अर्थात् अदृष्ट अर्थ का अनुमापक लिङ्ग सामान्यतोदृष्ट कहलाता है। जैसे, रूपादिज्ञान स्वभावतः अदृष्ट चक्षुरादि इन्द्रिय रूप अर्थ का अनुमापक है, क्योंकि चक्षरादि इन्द्रियां स्वभावतः प्रत्यक्ष के अयोग्य हैं। किन्तु रूपादिज्ञानरूप क्रिया करण के बिना असंभव है। जैसे, काष्ठ की छेदनक्रिया कुठार आदि साधनों के बिना अनुपपन्न है। अतः रूपादिज्ञानरूप क्रिया द्वारा उसके साधनभूत अदृष्ट चक्षुरादि इन्द्रियों का अनुमान होता है। स्वार्थ -परार्थ भेद भासर्वज्ञ के पूर्ववर्ती 'न्यायसूत्र', 'न्याय भाष्य', 'न्यायवार्तिक', 'न्यायमंजरी' आदि न्यायग्रन्थों में स्वार्थ-परार्थ भेद स्पष्टतया प्राप्त नहीं होता। अनुमान के दृष्ट तथा सामान्यतो दृष्ट भेद की तरह इन दो भेदों को भी भासर्वज्ञ ने प्रशस्तपाद से प्रभावित होकर माना है । परोपदेशरूप पंचावयव वाक्य की अपेक्षा न रखने वाले अनुमान को स्वार्थानुमान कहते हैं और परोपदेशापेक्षी अनुमान को परार्थ कहते हैं।' स्वार्थ तथा परार्थ शब्द भी व्युत्पत्ति से इसी अर्थ का बोधन कर रहे हैं। अनुमान के इस ट्रैविध्य से अनुमिति भी दो प्रकार की होती है। 1. वही, पृ. २२० 2. सूत्रे तु दृष्टादिप्रकारेण द्वविध्यं चशब्दचितं दृष्टव्यम् । -न्यायभूषण, पृ. २२६ 3. न्यायसार. पृ. ५ 4. न्यायसार, पृ. ५ 5. पंचावयवेन वाक्येन स्वनिश्चिता प्रतिपादनं परार्थानुमानम् । पंचावयवेव वाश्येन संशयित. विपर्यस्ताव्युत्पन्नानां परेषां स्वनिश्चिताथ प्रतिपादनं परार्थानुमान विज्ञेयम् । -प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १८४ 6. तत् पुनः द्विविधम् । स्वार्थ परार्थ चेति । -न्यायसार, पृ. ५ 7. न्यायसार, पृ. ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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