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________________ न्यायसार । किसी विषय के ज्ञान से जन्य संस्कारों की पटुता के लिये आदरप्रत्यय, अभ्यास प्रत्यय तथा पटु प्रत्यय-इन तीनों में से किसी एक की अपेक्षा होती है । जिस प्रकार पर, मध्यम तथा अल्प बुद्धि वाले पुरुषों को संस्कारपाटव के लिए ग्रन्थादि के अभ्यास की अपेक्षा होती है, उसी प्रकार व्याप्तिज्ञान के संस्कारों की दृढ़ता के लिये भूयोदर्शन की अपेक्षा होती है। धूम और अग्नि के व्याप्यव्यापकभाव को अविनाभाव कहते हैं और वह सकल धूम तथा अग्नि व्यक्तियों में विद्यमान एक ही है। समस्त धूम तथा अग्मि व्यक्तियों का ग्रहण न होने पर भी तन्निष्ठ व्याप्ति (अधिनाभाव) का ग्रहण एकदो धूमाग्नि व्यक्तियों में अविनाभावदर्शन से भी उसी प्रकार हो जाता हैं जैसे अनन्त व्यक्तियों में समवेत सामान्य और समवाय का एक दो सम्बन्धियों का ग्रहण होने पर भी ग्रहण हो जाता है। यहाँ अन्तर यही है कि अनुमान का व्याप्यव्यापकभाव सम्बन्ध होता है, समवाय सम्बन्ध नहीं । दोनों के सम्बन्धात्मक होने पर भी स्वभाव को विचित्रता के कारण ऐसा होता है । अविनाभाव निखिल धूम तथा अग्नि व्यक्तियों में विद्यमान है। भासर्वज्ञ ने यह माना है कि लसके ग्रहण के लिये निखिल व्यक्तियों का ग्रहण अपेक्षित नहीं, अपितु एक, दो या तीन व्यक्तियों के ग्रहण से भी उसका ग्रहण हो जाता है । अविनाभाव को एक समझ कर यह कहा गया है, तभी तो अदृष्ट, अनीत, अनागत धूमदर्शन से भी व्याप्तिस्मरण होता है, क्योंकि व्यक्तियों में तो अतीत और अनागत भी आ जाते हैं। परन्तु जैसा कि कहा गया है 'सम्बद्ध वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना' चक्षुद इन्द्रियों द्वारा बाहूय प्रत्यक्ष तो इन्द्रियसम्बद्ध और वर्तमान विषय का होता है । संभवतः इस वस्तुस्थिति के कारण भासर्वज्ञ सकल धूमाग्निव्यक्तिनिष्ठ अविनाभाव के ग्रहण में प्रत्यक्ष की असमर्थता पर विचार कर अनुमान प्रमाण पर आ जाते हैं अर्थात् सर्वोपसंहारवती व्याप्ति का ग्रहण अनुमान प्रमाण से हो जाता है । अनुमानवाक्य निम्नलिखित हैं १. सर्वे धूमाः अग्निव्याप्ताः, धूमत्वादुपलब्धधूमवत् । २. धूमवन्तः प्रदेश वाग्निमन्तः, धूमवत्वात्, तथोपलब्धप्रदेशवत् ।' । प्रथम अनुमान में धूम पक्ष है तथा द्वितोय में धूमविशिष्ट प्रदेश । इस रीति से सर्वोपसंहारवतो व्याप्तिस्मृति भी अनुमानपूर्वक सम्पन्न होती है। किन्तु सर्वोप. संहारवती व्याप्ति के साधक अनुमान में 'उपलव्धधूमवत्' इस दृष्टान्त के सिद्ध होने पर सर्वोपसंहारवती व्याप्ति की सिद्धि होती है और सर्वोपसंहारवती व्याप्ति 1. प्रशस्तपादभाध्य, पृ २२२-२२३ 2. न्यायभूषण, पृ. २१८ 3. श्लोकवार्तिक, पृ० १६०, (प्रत्सक्षसूत्र, का० ८४) 4. सर्वव्याप्यन्यापकाग्रहे कथ' सर्वोपसंहारेण प्रतीतिरिति चेत्, न अनुमानतस्तत्संभवात् । न्यायभुषण, पृ.२१६ 5. न्यायभूषण, पृ. २१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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