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________________ अनुमान प्रमाण अविनाभाव अनुमानलक्षण में अविनाभाव का स्वरूप बतलाते हुए भासर्वज्ञ ने साध्य के साथ साधन की स्वभावतः व्यादित अर्थात् साध्य और साधन में साध्य व्यापक होता है और साधन व्याप्य इत्याकारक स्वाभाविक (अनौपाधिक) नियम को अविनाभाव कहा है। जैसे बहूनि तथा धूम में बहूनि व्यापक है और धूम वहूनि का व्याप्य है, यह स्वाभाविक नियम धूम और वनि का अविनाभाव शब्द भी 'न विना भवतीति अविनाभावः' इस व्युत्पत्ति से व्याप्य का व्यापक के बिना न रहनारूप साध्यसाधन के अनौपाधिक सम्बन्ध को ही बतला रहा है। यह अविनाभावरूप व्याप्ति अन्वयव्यतिरेक भेद से अर्थात् विधि-प्रतिषेध भेद से दो प्रकार की है। विधिमुख से या भावमुख से प्रतीयमान व्याप्ति अन्वयव्याप्ति तथा प्रतिषेधमुख से अर्थात् अभावमुख से प्रतीयमान व्याप्ति व्यतिरेकव्याप्ति है । अर्थात् भावरूप साध्य-साधन की व्याप्ति अन्वयव्याप्ति तथा अभावरूप साध्याभाव व साधनाभाव की व्याप्ति व्यतिरेकव्याप्ति है । इसी का स्पष्टीकरण करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि साध्य सामान्य से साधन-सामान्य की व्यारित अन्वयव्याप्ति है । जैसे 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निः' इस रूप से अग्निसामान्य के साथ धूमसामान्य का अव्यभिचारी सम्बन्ध अन्वय-व्याप्ति है। इसी प्रकार साधनसामान्याभाव के साथ साध्य-सामान्याभाव का अव्यभिचारी सम्बन्ध व्यतिरेक-व्याप्ति है । जैसे 'यत्र यन्न वहून्यभावस्तत्र तत्र धूमाभावः' इस रूप से धूमाभावसामान्य के साथ वहून्यभावसामान्य का अव्यभिचारी सम्बन्ध व्यतिरेकव्याप्ति है। जैसा कि पहिले कहा जा चुका है, भासर्वज्ञ ने अविनाभाव का लक्षण 'स्वभावतः साध्येन साधनस्य व्याप्तिरविनाभावः' यह किया है । वाचस्पति तथा अन्य नैयायिकों को 'स्वाभाविकः सम्बन्धो व्याप्तिः' यह व्याप्तिलक्षण अभिप्रेत है। वस्तुतः उन दोनों में कोई भेद नहीं है । खण्डनकार ने स्वाभाविक शब्द के अर्थ के विषय में अनेक विकल्प प्रस्तुत करते हुए उन सभी का क्रमशः युक्तिपुरःसर खण्डन प्रस्तुत कर स्वाभाविक सम्बन्धरूप व्याप्ति के लक्षण का खण्डन किया है । जैसे प्रथम पक्ष : 'स्वाभाविक' का सम्बन्धिस्वभाव पर आश्रित अर्थ मानने पर सम्बन्धिस्वरूप के आश्रित सम्बन्ध व्याप्ति कहलायेगा तथा व्यप्तिरूप सम्बन्ध के साध्य और साधन दो सम्बन्धी होने से साध्य और साधन उभयाश्रित सम्बन्ध व्याप्ति होगी। ऐसी 1. स्वभावत: साध्ये न साधनस्थ ब्याप्तिरविनाभावः ।-न्यायसार, पृ. ५ 2. न्यायसार, पृ. ५ 3. स्वाभाविकस्तु धूनादीनां वहन्यादिसम्बन्धः । -न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, १/१/५ 4. खण्डनखण्डखाद्य, पृ. ३६५-३६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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