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न्यायसार
स्थिति में साध्य और साधन के अव्यभिचारी सम्बन्ध को तरह उनके व्यभिचारी सम्बन्ध के भी उभयाश्रित होने से वह भी व्याप्ति माना जायेगा और जैसे धूम को अग्नि का व्याप्य माना जाता है. वैसे अग्नि को भी धम का व्याप्य मानना पडेगा। होरकादि में व्यभिचरित पार्थिवत्व के होने पर लोह लेख्यत्व के न होने से पार्थिवत्व और लोहलेख्यत्व के व्यभिचारीसम्बध में व्याप्तलक्षण की अतिव्याप्ति होगी।
द्वितीय पक्ष : . स्वाभाविक शब्द का सम्बन्धिस्वभावजन्य अर्थ मानने पर सम्बन्धिस्वभाव से जनित कुछ व्यभिचारी सम्बन्धों में रक्षण की अतिव्याप्त और सम्बन्धिस्वभाव से अजनित नित्य सम्बन्धरूप व्याप्ति में अव्याप्ति होगी।
तृतीय पक्ष :
स्वाभाविक पद का सम्बन्धित्वेन विवक्षित पदार्थो के आश्रित अर्थ मानने पर भी साध्य-साधन के व्यभिचारो सम्बन्धों में लक्षण को अतिव्याप्ति और सम्बन्धि स्वभाव के अनाश्रित अव्यभिचारी सम्बन्ध में अव्याप्ति होगी। चतुर्थ पक्ष :
सम्बन्धिस्वभावव्याप्त को व्याप्ति मानने पर आत्माश्रय दोष की प्रसक्ति है, क्योंकि व्याप्य का अर्थ व्याप्ति का आश्रय है और इस प्रकार व्याप्ति के निरूपण में व्याप्ति की ही अपेक्षा हो जाती है। साध्य और साधन के सम्बन्ध को व्याप्य मानने पर साध्य और साधन के व्याप्यभूत सम्बन्ध की अपेक्षा व्यापक अधिकदेशवृत्ति होने से वहां एक सम्बन्धी धूम के ज्ञान से अपर सम्बन्धी वनि की अनुमिति नहीं होगी क्योंकि व्याष्य के ज्ञान से व्यापक अनुमिति होती है और इस पक्ष में धूम तथा वहूनि में परस्पर व्याप्यव्यापकभाव नहीं है । पंचम पक्ष :
स्वाभाविक का यदि 'सर्वे शब्दाः सावधारणाः' इस न्याय के अनुसार 'स्वाभाविक एव न तु अस्वाभाविकः' अर्थात सम्बन्धिस्वरूप भिन्न पदार्थ के द्वारा जो प्रयुक्त न हो, उस सम्बन्ध को व्याप्ति कहा जाता है।
इस पक्ष में अभिमत अकृतक मानने पर अकृतक सम्बन्ध के किसी से भी जनित न होने के कारण अन्येन न प्रयुक्तः यह कहना निरर्थक है तथा अभिमत सम्बन्ध को कृतक मान्ने पर असंभव दोष आता है। क्योंकि किसी भी सम्बन्ध के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि वह अपने संबंधिस्वरूप से भिन्न और किसी से प्रयुक्त नहीं है, क्योंकि अदृष्टादि के कार्यमात्र के प्रति कारण होने से सम्बन्धिस्वरूप से भिन्न अष्टादि के द्वारा प्रयक्त ही है।
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