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न्यायसार क्योंकि प्रत्यक्षजन्य संस्कार और संशयादिज्ञान में लक्षण की अतिव्याप्ति है। इसके परिहार के लिये 'ते च तानि च इस एकशेष का आलम्बन कर अविनाभावसम्बन्धदर्शन तथा लिंगदर्शन का जो ग्रहण किया गया है, वह उचित नहीं है, क्योंकि सर्वनाम प्रकान्त के परामर्शक होते हैं और अविनाभावसम्बन्ध तथा लिंग पूर्वप्रकान्त नहीं हैं। अतः उन्होंने 'तरपूर्वकम्' को अनुमान का लक्षण न मानकर सूत्रस्थ अनुमानम्' पद को ही 'अनुमीयतेऽनेन' इस करणव्युत्पत्ति से अनुमितिकरण मानकर लक्षण माना है । अर्थात् अनुमितिज्ञान में जो भी साधन हों, वे सब अनुमान हैं। इसी अभिप्राय से 'न्यायसार' में उन्होंने 'सम्यगविनाभावेन परोक्षानुभवसाधनं अनुमानम् यह अनुमान का लक्षण किया है । इस लक्षण में 'अविनाभावेन' में साधकतम अर्थ में तृतीया मानकर तथा अविनाभावरूप विषय से विषयी व्याप्तिस्मरण का ग्रहणकर समीचीन व्याप्तिस्मरण रूप असाधारण कारण से जन्य जो परोक्षानुभव है, उसका साधन अनुमान है, यह अनुमान लक्षण निष्पन्न होता है। इससे परोक्षानुभव. कारणभूत सभी साधनों का संग्रह हो जाता है। यहाँ 'सम्यकू' पद अविनाभाव का विशेषण है। 'सम्यक् चासौ अविनाभावश्च' इस रीति से कर्मधारयसमास मानते हुए न्यायसार के व्याख्याकार जयसिंहसरि तथा रामभट ने भी इसी तथ्य को स्वीकृत किया है। अतः जिस व्यक्ति को अविनभावस्मृति के बाद भी यदि किसी कारण से उसमें संशय या भ्रान्ति हो जाती है, तो उस संशय अथवा भ्रांतिरूप अविनाभावस्मृति से जन्य परोक्षानुभव न अनुमिति कहला सकता है और न उसका साधन अनुमान कहलाता है. एतदर्थ सम्यक् पद दिया है। अर्थात् परोक्षानुभव का असाधारण कारण अविनाभावरूप व्याप्तिस्मरण समीचीन होना चाहिये, संशयात्मक नहीं । अथवा बौद्ध अनुमितिज्ञान को भ्रान्त मानते है, क्योंकि वह ज्ञान अर्थभिन्न स्वप्रतिभासरूप ज्ञान में अर्थ के आरोप द्वारा होता है । भ्रान्तज्ञान होने पर भी बहनिज्ञानरूप अर्थ के अविसंवादी होने से वे अनुमान को प्रमाण मानते हैं। बौद्धाभिमत अनुमान में प्रमाणता के निरास के लिये लक्षण में 'सम्यक् पद दिया है।' बौद्धसम्मत अनुमान भ्रान्तज्ञान होने से प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह समीचीन नहीं है। 1. अनुमानपदमेव सव्युत्पत्तिकं लक्षणार्थम्... । तथाऽनुमीयतेऽनेनेति अनुमितिः क्रियते येन तदनुमानमिति लभ्यते ।
--- न्या.भू., पृ. १६१ 2. न्यायसार, पृ. ५ 3. न्यायभूषण, पृ. १६४, १६५ 4. वही, पृ. १६५ 5. (क) सम्यग् भिन्नाधिकरणत्वप्रतीतिरहितः । स चासावविनाभावश्च तेन ।
--न्यायतात्पर्य दीपिका, पृ. ८७ (ख) रामभट्टप्रभृतयः व्यवहितान्वयमसहमानाः सम्यक्चासावविनाभावश्चेति व्याख्यातवन्तः । 6. भ्रान्तं ह्यनुमानम् । स्वप्रतिभासेऽनथे ऽर्थाध्यवसायेन प्रवृत्तत्वात । -न्यायबिन्दुटीका, पृ. ८ 7. अथवा अनुमेयज्ञानं भ्रान्तमेवेत्याहुः शाक्या: । तदुक्तम्- 'भ्रान्तिरप्यर्थसम्बन्धादिति' तस्य निषेधार्थ सम्यग्ग्रहणम् ।
-न्यायभूषेण, पृ. १६५
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