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________________ अपवर्गनिरूपण २२७ दो प्राचीन कारिकाएं उपलब्ध होती हैं, जिनसे यह स्पष्ट सिद्ध है कि न्यायसूत्र के रचयिता गौतम समस्तविशेषगुणोच्छेदरूपी मुक्ति को नहीं मानते थे । 'तत्रापि नैयायिक आत्तगर्वः कणादपक्षाच्चरणाक्षपक्षे । मुक्तविशेष वद सर्वविच्चेत् नो चेत् प्रतिज्ञा त्यज सर्ववित्वे ॥ अत्यन्तनाशे गुणसंगतेर्या स्थितिनभोवत् कणभक्षपक्षे ।। मुक्तिस्त्वदीये चरणाक्षपक्षे सानन्दवित् सहिता विमुक्तिः ॥' इन कारिकाओं से यह प्रतीत होता है कि किसी नैयायिक ने शंकराचार्य की सर्वज्ञता पर कटाक्ष करते हुए यह आक्षेप किया कि यदि आप सर्वज्ञ हैं, तो बतलाइये कि कणादसम्मत मुक्ति से न्यायसम्मत मुक्ति में क्या भेद है ? और यदि नहीं बतला सकते, तो स्वयं को सर्ववित् कहना छोड़ दोजिये । इस पर शंकराचार्य ने कहा कि कणादमत में आत्मा के अशेष विशेष गुणों का उच्छेद हो जाने पर आकाश की तरह केवल महत्त्वादि सामान्य गुणों के साथ आत्मा को स्थिति मोक्ष है। किन्तु गौतम के मत में आनन्दसंवित्-सहित अर्थात् नित्यसुखाभिव्यक्तिसहित दुःखात्यन्तनिवृत्ति मोक्ष है। ___ यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि चाहे कितनी ही प्राचीन कारिका या वचन इस विषय में उपलब्ध होते हों, किन्तु स्वयं गौतमने अपने न्यायसूत्र में 'बाधनालक्षण दुःखम्', 'तदत्यन्तविमोक्षोऽपर्वाः' इन सूत्रों के द्वारा बाधनास्वरूप दुःख की अत्यन्त निवृत्ति को हो मोक्ष स्पष्ट रूप से बतलाया है, तब यह कैसे माना जा सकता है कि गौतम नित्य सुखाभिव्यक्तिसहित दुःखाभिव्यक्ति को मोक्ष मानते हैं । इसका यह समाधान है कि गौतम ने यही बतलाया है कि प्रमाणप्रमेयादि षोडश पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञाननिवृत्ति द्वारा परम्परया मिथ्याज्ञानजन्य दुःख की अत्यन्त निवृत्ति हो जाती है, इसी को अपवर्ग कहते हैं। सभी दार्शनिक तत्त्वज्ञान से तो मिथ्याज्ञान की निवृत्ति ही मानते हैं, क्योंकि तत्त्वज्ञान का मिथ्या. ज्ञान से ही विरोध है । वेदान्ती जीवब्रह्मैक्यरूप सम्यज्ञान से तथा सांख्य व पातंजल विवेकज्ञान से अज्ञान तथा अविवेक की ही निवृत्ति मानते हैं । अर्थात् तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान नष्ट होता है और उसके नाश से परम्परया दुःख की निवृत्ति होती है। अतः तत्त्वज्ञान का सामध्ये मिथ्याज्ञान तथा परम्परथा तज्जन्य दुःख की निवृत्ति में ही है, नित्य सुख की अभिव्यक्ति में नहीं। प्रतिबन्धकरूप दुःख को निवृत्ति हो जाने पर नित्य सुख तो स्वतः अभिव्यक्त हो जाता है । अतः शास्त्र का तात्पर्य तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान-निवृत्ति द्वारा दुःखात्यन्तनिवृत्ति में है, इसी 1 (a) न्यायभूषण से उधृत पृ. ५९४ । (b) अद्वत्तब्रह्मसिद्धि, पृ १७६ 2. शङ्करदिग्विजय, सर्ग १६१६८-६९ 3. न्यायसूत्र, ११।२१ 4. वही, १।१२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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