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न्यासार
आत्मा की नित्यसुखरूपता का कहीं भी गोतम के द्वारा प्रतिपादन नहीं किया गया है, अपि तु न्याय के वैशेषिक के समानतन्त्र होने से ज्ञानसुखाद्याश्रयत्व ही आत्मा का स्वरूप सिद्ध होता है न कि नित्यसुखरूपता । न्याय और वैशेषिक दर्शन ही नहीं, षड्दर्शनों में वेदान्त को छोड़कर किसी भी दर्शन ने आत्मा की सुखरूपता अंगीकार नहीं की है । इसीलिये वेदान्तातिरिक्त सभी दर्शनों में शब्दभेद से दुःखात्यन्तनिवृत्ति को ही मोक्ष माना है । षड् दर्शनों में केवल वेदान्तदर्शन ही एक ऐसा है जिसने प्रपञ्चनिवृत्तिपूर्वक नित्यसुखाभिव्यक्ति को मोक्ष स्वीकार किया है ।
वस्तुतः मोक्ष में आत्मा की स्वरूपस्थिति होती है । अतः आत्मा को नित्य - सुखस्वरूप मानने वाले वेदान्तमत को छोड़कर अन्य दर्शनों में नित्य सुखस्वरूपतारूप मोक्ष को मानना नितान्त असंगत है । इसीलिये जयन्तभट्ट ने आत्यन्तिकी दुःखव्यावृत्ति को हो मुक्ति माना है और उसको सिद्ध भी किया है । 1
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... आत्यन्तिकी दुःखव्यावृत्तिरपवर्गो न सावधिका द्विविधदुःखावमर्शिना सर्वनाम्ना सर्वेषामात्म गुणानां बुद्धिसुखदुःखेच्छ । द्वेषप्रयत्नधर्माधिर्म संस्काराणां निमू लोच्छेदोऽपवर्ग इत्युक्तं भवति । .... तदेवं नवानामात्मगुणानां निम् लोच्छदोऽपवर्ग इति यदुच्यते तदेवेदमुक्तं भवति तदत्यन्तवियोगोऽपवर्ग इति ।
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ननु तस्यामवस्थायां कीहगात्भावशिष्यते । स्वरूपैकत्रतिष्ठानः परित्यक्तोऽखिलैर्गुणैः ॥
ऊर्मिषट्कातिगं रूपं तदस्याहुर्मनीषिणः । संसारबन्धनाधीनदुःखक लेशाद्यदूषितम् ॥
-न्यायमञ्जरी, उत्तरभाग, पृ. ७७
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