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________________ अपवर्गनिरूपण २२९ भासर्वज्ञ ने उपर्युक्त रीति से आनन्दसंवितसहित दुःखात्यन्तनिवृत्ति को मोक्ष माना है । अर्थात् मोक्षदशा में दुःखरूप प्रतिबन्ध के नष्ट हो जाने से नित्य सुख की अभिव्यक्ति हो जाती है, जो कि संसारदशा में दुःखरूप प्रतिबन्ध के कारण ती थी. किन्त न्यायदर्शन की रीत से यह सर्वथा अनुपपन्न है, क्योंकि यह मुक्ति आत्मा को आनन्द व ज्ञानरूप मानने वालों के मत में ही बन सकती है। किन्तु न्यायदर्शन आत्मा को ज्ञानरूप व आनन्दरूप नहीं मानता । वह तो आत्मा के साथ मन संयोग द्वारा बुद्ध्यादि विशेष गुणों की उत्पत्ति आत्मा में मानता है । इसीलिये उन्होंने आत्मा को 'ज्ञानाद्यधिकरणमात्मा इस रीति से ज्ञानादि का आश्रय माना है और इन्हीं बुद्ध्यादि लिंगों के द्वारा उन्होंने आत्मा को अनुमति मानी है । यद्यपि ईश्वर के गुणों की संख्या के विषय में नयायकों के मत में एकरूपता नहीं है, तथापि ईश्वर में नित्य ज्ञान, नित्य इच्छा तथा नित्य प्रयत्न सब को मान्य है। परन्तु वे उसमें भी नित्य सुख की सत्ता नहीं मानते हैं । हाँ, जरन्नैयायिक जयन्त ने ईश्वर को धर्म तथा नित्य सुख का आश्रय भी माना है। ऐसो स्थिति में आत्मा में मुक्तिदशा में सुख व ज्ञान के न होने से नित्य सुख को अभिव्यक्ति किस प्रकार बन सकती है ? उन्होंने जो नित्य सुख की आभव्यक्ति के विषय में 'आनन्द ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चन,' 'आनन्दं ब्रह्मणो रूपम्' इत्यादि जो श्रुतिवचन उपन्यस्त किये हैं, वे ब्रह्म अर्थात् आत्मा को आनन्दरूप बतला रहे हैं और न्यायदर्शन में उपक्त रीति से आत्मा जब आनन्दरूप नहीं है, तब उपयुक्त श्रतिवचन किस तरह नित्य सुख को अभिव्यक्ति में प्रमाण हो सकते हैं । अतः दुःखात्यन्तानवृत्ति ही न्यायदर्शन में मोक्ष का स्वरूप है । इसीलिये श्रीहर्ष ने गौतम के मुक्तिसिद्धान्त पर कटाक्ष करते हुए कहा है 'मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् । गोतमं तमवेक्ष्येब यथा वित्थ तथैव सः ॥” इसका स्पष्ट अभिप्राय है कि बुद्धिजीवी तथा प्रेक्षावानों को जडतारूप मुक्ति का उपदेश करने वाला गोतम गोतम ही है अर्थात् निरा पशु है । यद्यपि गौतम ने कहीं भो सकलविशेषगुणोच्छेदरूप मुक्ति का प्रतिपादन नहीं किया है, किन्तु 'तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः'3 सूत्र में दुःखात्यन्तविमुक्तिरूप मुक्ति का तो प्रतिपादन किया ही है, अतः दुःखात्यन्तनिवृत्ति ही न्यायमत में मोक्ष का स्वरूप सिद्ध होता है। 1. धर्मस्तु भूतानुमहवतो वस्तुस्वाभाव्या भिबन्न वार्यते तस्य च फलं परमार्थनिष्पत्तिरेव, सुखें स्वस्य नित्यमेव नित्यानन्दत्वेन आगमात् प्रतीतेः, असुरिक्तस्य चैवविधकार्यारम्भयोग्यताs. भावात् । -न्यायमञ्जरी, पूर्व भाग (चौखम्बा, वाराणसी, द्वितीय संस्करण), पृ. १८५ 2. नैषध, सर्ग १७, श्लोक ७४ 3. न्यायसूत्र, १२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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