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नवम विमर्श परवर्ती ग्रन्थकारों पर भासर्वज्ञाचार्य का प्रभाव
परस्पर खण्डमण्डन की परम्परा ने श्रौत तथा अश्रौत दर्शनों के सिद्धान्तों में अनेक परिवर्तन, परिष्कार तथा परिवर्धन द्वारा दार्शनिक वाङ्भय को पर्याप्त समृद्ध बनाया है । दर्शनशास्त्र के प्रौढ़ ग्रन्थकारों से उत्तरवर्ती ग्रन्थकार अवश्य प्रभावित हुए हैं। आचार्य भासर्वज्ञ भी उन ग्रन्थकारों में अन्यतम हैं, जिनका भूरि प्रभाव उत्तरवर्ती दर्शनशास्त्रीय वाङ्मय पर परिलक्षित होता है । न्यायशास्त्र को परम्परागत वैशेषिकप्रभाव से मुक्त कर उसमें नूतन सिद्धान्तों की उदुभावना द्वारा क्रान्ति ल के कारण भासर्वज्ञाचार्य परवर्ती ग्रन्थकारों के विशेष चर्चा के विषय रहे हैं। उनके 'न्यायसार' पर स्वोपज्ञ विवृति 'न्यायभूषण' के अतिरिक्त सत्रह टीकाएं लिखी गई। यह उनके प्रभावातिशय तथा प्रसिद्धि का द्योतक प्रबल प्रमाण है। इन टीकाकारों में जयसिंह सूरि आदि जैन दार्शनिक भी हैं । न्यायभूषण पर भी दो टीकाओं की रचना का उल्लेख प्राप्त होता है ।' वासुदेव सूरि ने तो न्यायभूषण की दुर्बोधता और गहनता से प्रभावित होकर उसे महाम्बुधि संज्ञा दी है।
बौद्ध दार्शनिक ज्ञानश्रीमित्र ने न्यायशास्त्र के आधारस्तम्भभूत प्रमुख नैयायिकों में भासर्वज्ञ की गणना कर उनके महत्व का अंकन किया है।* हेमचन्द्र सूरि, मल्लिषेण सूरि, श्रीमद्वल्लभाचार्य, उदयनाचार्य, किरणावलीप्रकाशकार, शंकरमिश्र, भट्ट वादीन्द्र, वरदराज वेंकटनाथ, ज्ञानश्री, रत्नकीर्ति आदि परवर्ती ग्रन्थकारों ने प्रमाणसामान्य, प्रत्यक्ष, अनुमान, संख्या, कर्म, विभागज विभाग, मुक्ति आदि अनेक विषयों से सम्वन्धित भासर्वज्ञ के मन्तव्यों के खण्डन अथवा मण्डन के लिये अपनी लेखनी चलाई है और उनके मत को उद्धृत किया है । भासर्वज्ञ के मन इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि विरोध होने पर भी परवर्ती दार्शनिक उनको उपेक्षा नहीं कर सके । ४००५०० वर्षों की सुदीर्घ कोलावधि तक भासर्वज्ञ के मतों की समालोचना होती रही, इससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उनकी मान्यताएं निश्चित रूप से प्रभावशाली
और महत्त्वपूर्ण थी । जसाकि पुरस्तात् कहा जा चुका है, उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने स्वमतसमर्थनार्थ या भासर्वज्ञमतखण्डनार्थ दो रूपों में उनके विचारों को उद्धृत किया है। यहां दोनों प्रकार के कतिपय उद्धरण प्रस्तुत कर आचार्य भासर्वश के प्रभाव का अवधारण किया जा रहा है।
1. द्रष्टप्य-प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध, पृ. २६ 3. वही
2. वही 4. ज्ञानश्रीनिबन्धावलि, पृ. १५९
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