________________
२३२
न्यायसार (क) तर्कभाषाप्रकाशिका के प्रणेता चिन्नभट्ट भासर्वज्ञमत से प्रभावित प्रतीत होते हैं। उन्होंने अनेक स्थलों पर भासर्वन के मन्तव्यों को स्वमत के समर्थन के लिये उद्भत किया है। जैसे-तर्कभाषाकार ने साधारण तथा असाधारण भेद से अनैकान्तिक हेत्वाभास के दो भेद माने हैं। इस प्रसंग में चिन्नंभट्ट ने व्यभिचार का लक्षण किया है-'स्वोचितस्थलमतिक्रम्य अन्यत्र वर्तनं व्यभिचारः। अर्थात स्वोचित स्थल सपक्ष को छोड़कर अन्यत्र अर्थात् विपक्ष में हेतु का रहना व्यभिचार है। यहां आशंका होती है कि अनुचित स्थल विपक्ष में न रहने वाले पक्षमात्रवृत्ति असाधारण हेत्वाभास में सव्यभिचारिता कैसे सम्पन्न होगी ? तर्कभाषाप्रकाशिकाकार ने इसका समाधान करते हुए कहा है-'अनुचितस्थले वर्तमान मिवोचितस्थलेऽवर्तमानमपि व्यभिचार एव' ।' अर्थात् हेतु ही की विपक्षवृत्तिता की की तरह सपक्षावृत्तिता भी व्यभिचार हो है । अतः असाधारण का भी ग्रहण हो जाता है । उपयुक्त उभयविध व्यभिचार के समर्थन में चिन्नंभट्ट ने भासर्वज्ञमत को उद्धृत किया है 'तदुक्तं भासर्वक्षेन हेतोरुभयत्रवृत्तिय॑भिचारस्तथोभयतो व्यावृत्तिरपि व्यभिचार एवं' ।
(ख) अपि च, चिन्नंभट्ट ने बतलाया है कि न्यायविद्या में संशयादि पदार्थों का प्रमाणों तथा प्रमेयों से पृथक् कथन न्यायविद्या का अध्यात्मविद्या से भेद बतलाने के लिये किया गया है। अन्यथा उपनिषद् की तरह न्यायविद्या भी अध्यात्मविद्यामात्र हो जाती । संशयादि पदार्थों द्वारा ही न्यायविद्या से पृथक् प्रस्थापित होती है। इसके समर्थन के लिये उसने भासर्वज्ञ को प्रमाणरूप से उद्धृत किया है'तस्मात् संशयादिभिः पदार्थैः (न्यायविद्या) पृथक् प्रस्थाप्यत इति भूषणेऽप्येतत्प्रति. पादितम्' ।
(ग) न्यायशब्द की अनुमानार्थपरकता का निर्देश करते हुए चिन्नंभट्ट ने कहा है-'नीयते ज्ञाप्यते विवक्षितोऽर्थो येनेति करणव्युत्पत्त्या न्य योऽनुमानम्' । अपने इस कथन के समर्थन में चिन्नं भट्ट ने भासर्वज्ञ के वक्तव्य को प्रमाण रूप में उपन्यस्त किया है-'अतः एवोक्तं भासर्वज्ञेनानुमाननिरूपणावसाने-'सोऽयं परमो न्याय' इति ।
(घ) अनुमान के दो साध्य होते हैं-(१) अग्निसामान्य और (२) पर्वतादिनिष्ठ अग्निविशेष । इस साध्यद्वय की सिद्धि के लिये अनुमान में सामर्थ्यद्वय होता हैव्याप्ति और पक्षधर्मता । व्याप्ति से सामान्यसाध्य की सिद्धि होती है और पक्षधर्मता के बल से अभिमत विशेष साध्य की सिद्धि । पूर्व न्यायाचार्यों को भी यह मान्य था, इसकी पुष्टि के लिये चिन्नंभट्ट भूषणकार भासर्वज्ञ को उद्धृत करते है-'अत एवाह भूषणकारः-बहिर्याप्त्यन्ताप्तिप्रसादादुभयसिद्धिरिति पूर्वाचार्याः 'प 1. तर्कभाषाप्रकाशिका, पृ. १५६ 5. वही, पृ. ६८ 2. वही
6. वही 3. वही
7. वही, पृ. १५० 4. तर्कभाषाप्रकाशिका, पृ. २०९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org