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न्यायसार
३ विप्रतिपत्ति
विप्रतिपत्ति अर्थात् परस्पर विरुद्ध धर्मों के प्रतिपादक वाक्य भी संशय के कारण हैं । जैसे - नैयायिक इन्द्रियों को भौतिक मानते हैं और सांख्य दार्शनिक अभौतिक । यहां पर इन्द्रियों में भौतिकत्व तथा अभौतिकत्व-इन दो विरुद्ध धर्मों के प्रतिपादक-'भौतिकोनि इन्द्रयाणि,' 'अभौतिकानि इन्द्रियाणि-ये दोनों वाक्य इन्द्रियों में भौतिकत्व- अभौतिकत्व रूप संशय के उत्पादक हैं । परस्पर व्याहत वाक्य को सुनने वाले सभासद् को विशेषापेक्षा तथा उपलब्धि आदि की अव्यवस्थारूप सहकारिकारणों के सद्भाव में इन्द्रियाँ भौतिक हैं अथवा अभौतिक- यह सन्देह हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा शरीरादि से भिन्न है अथवा नहीं-इत्यादि भी विप्रतिपत्ति के उदाहरण हैं।
उपलब्धि
__ उपलब्धि भी संशय में कारण है । जैसे, तडागादि में विद्यमान जल की उपलब्धि होती है तथा मृग मरीचिकारूप अविद्यमान जलादि को भी । अतः जल की उपलब्धि से क्या यह जल विद्यमान है अथवा अविद्यमान-इत्याकारक संशय होता है। अनुपलब्धि
इसी प्रकार अनुपलब्धि भी संशय में कारण है । जैसे, विद्यमान पिशाच की भी उपलब्धि नहीं होती तथा अविद्यमान शशशृंगादि की भी । अतः भूगर्भ में विद्यमान मूलक, कीलक, उदकादि की अनुपलब्धि से अनुपलभ्यमान मूल कीलकादि सत् हैं अथवा असत्-यह सन्देह उत्पन्न हो जाता है।
भासर्वज्ञ ने संशयसूत्र में उपलब्धि तथा अनुपलब्धि पदों की तन्त्र द्वारा द्विग. वृत्ति मानकर उपलब्धि को पृथक् संशय का कारण माना है तथा उनको अव्यवस्था का विशेषण मानकर उपलब्धि तथा अनुपलब्धि की अव्यवस्था को संशयसामान्य का सहकारिकारण भी माना है। अतः उपलब्धि तथा अनुपलब्धि की अव्यवस्था सभी पांच प्रकार के संशयों में सहकारिकारण है। इसी प्रकार विशेषापेक्षा भो। इसलिये
१. उपलब्ध्युपपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः । २ अनुपलब्ध्युपपत्तरुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः । ३ समानधर्मोपपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातों विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः । ४. अनेकधर्मोपपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः । ५. विप्रतिपत्तेरुपलभ्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः ।
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