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________________ प्रमाणसामान्यलक्षण २७ अथवा अनेक धर्म पद में 'अनेकश्चासौ धर्मः' यह कर्मधारय समास मानने पर वस्तु में विरुद्ध अनेक धर्मों की उपलब्धि सशय का कारण है, यह सिद्ध होता है। जसे मन क्रियावान् होने से क्रियावान् शरादि की तरह मूर्त है अथवा अस्पर्शवान होने से अस्पर्शवान् आकाश की तरह अमूर्त है, इस प्रकार मन में क्रियावत्व तथा अस्पर्शवत्व-इन विरुद्ध धर्मों को उपलब्धि से उसमें मूर्तत्व और अमूर्तत्व का सन्देह बन जाता है। क्योंकि दोनों विरुद्ध धर्मों का परस्पर व्याघात होने से उनकी एकत्र स्थिति संभव नहीं । मन में क्रियावत्व तथा अस्पर्शवत्त्व इन विरुद्ध अनेक धर्मो की उपलब्धि के सदा रहने से उसमें मूर्तत्व और अमूर्तत्व का सन्देह सदा ही बना रहेगा, यह शंका भी उचित नहीं, क्योंकि केवल वि द्ध अनेक धर्मों की उपलब्धि ही संशय में कारण नहीं, किन्तु उसके साथ उपलब्धि की अव्यवस्था आदि भी सहकार कारण है। उसके न होने से सर्वदा संशय नहीं हो सकता । क्रियावत्त्व तथा अस्पर्शवत्व-इन दो तुल्य बल वाले धर्मों की प्रक्ति मन में मूर्तत्व यो अमूर्तत्व के निर्णय की अनुत्पादिका है, न कि संशय की उत्पादिका -यह प्रशस्तपाद का कथन' भी संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि निर्णय का न होना ही संशय है । निर्णय के न होने पर अचेतन वुड्यादि की तरह मनुष्य बैठा नहीं रहता, किन्तु उसका पर्यालरोचन करता है और पर्यालोचन बिना संशय के नहीं हो सकता । किसी भी धर्म का निर्णय न होने पर अनध्यवसाय होता है, न कि संशय, यह कथन भी समुचित नहीं । क्योंकि जैसे अनेक धर्मों के होने पर निर्णय न होने से अनध्यवसाय माना जायेगा, तो दो विरुद्ध धर्मो की स्थिति भी वन्तु में किसी एक धर्म के निर्णय की अनुत्पादिक होने से अनध्यवसाय कोटि में ही आयेगी न कि संशयकोटि में, जबकि विरद्ध धर्मो की स्थिति को प्रशस्तपाद भी संशय का कारण मानते हैं । प्रशस्तपाद ने कर्मप्रकरण में यह प्रश्न उठाया है कि गमनत्व धर्म कर्मत्व का पर्यायवाची है अथवा कर्मत्व से भिन्न कोई सामान्य । उत्क्षेपणादि क्रियाओं में कर्मप्रत्यय की तरह गमनप्रत्यय के भी समान रूप से होने के कारण गमनत्व कर्मत्वपर्यायवाचो है, यह प्रतीत होता है और गमन को उत्क्षेपणादि की तरह गमनरूप विशेष संज्ञा से अभिहित किया गया है, इससे यह प्रतीत होता है कि वह उक्षेपणादि की तरह कर्मत्व से भिन्न अपर सामान्य है । इस प्रकार का संशय विरुद्धधर्मद्वय की स्थिति में प्रशस्तपाद ने बतलाया है तथा वक्ष्यमाण रीति से अनध्यवसाय भी संशय ही है, उससे भिन्न नही । अतः विरुद्धधर्मोपलब्धि की सरह अनेकधर्मोपलब्धि भी संशय का हेतु है यह सिद्ध हो जाता है । 1. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १९३. 4. न्यायभूषण, पृ. १७. 2. न्यायभूषण, पृ. १७ 5. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. २५२, 3. प्रशस्तपादभाध्य, पृ. 1९२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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