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________________ २६ न्यायसार धर्मः' इस कर्मधारय समास से दो वस्तुओं में पृथक्-पृथक् विद्यमान सहश परिणा. मादि धर्मों का ग्रहण है तथा षष्ठो तत्पुरुष से दोनों वस्तुओं में अभिन्नरूप से विद्यमान सामान्य अवयवसंयोगादिलक्षण धर्मो का ग्रहण है । जसे - स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इस संशयोदोहरण में स्थाणु तथा पुरुष में विभिन्न रूपेण विद्यमान समान परिणाम आदि समान धर्मो की तथा स्थाणु और पुरुष दोनों में विद्यमान एक ही अवयव. संयोगादिरूप सामान्य धर्म को उपलब्धि है। २ अनेकधर्मोपलब्धि अनेकधर्मोपलब्धि अनवधारण का कारण होती है । अनेकधर्म पद में 'अनेकस्माद् व्यावर्तको धर्मः, अनेकस्यासम्बन्धी वा अनेकस्मिन् प्रतिषिद्धो वा अनेकप्रत्यय. हेतुर्वा धर्मः 1 इस प्रकार से अनेकधा मध्यमपदलोपी समास है । सभी समासों द्वारा वस्तु के असाधारण धर्म का लाभ है । जैसे-'आकाशविशेषगुणत्व' शब्द का असाधारण धर्म है, जो कि उसे अनित्यपृथिव्यादि से तथा नित्य आत्मादि से पृथक करता है। यद्यपि यह असाधारण धर्म संशय का कारण नहीं बन सकता, क्योंकि संशय में विशेष की अपेक्षा है अर्थात विशेष स्मरण को भी कारण मान गया है और असाधारण धर्म यदि परस्पर विरुद्धविशेष प्रथिव्यादि तथा आत्मादि पदार्थो के साथ रहता हो, तो उससे उनका स्मरण होकर संशय में वह कारण बन सकता है, किन्तु वह उन विरुद्धविशेषों के साथ रहता नहीं। अतः विरुद्धविशेषों का स्मारक न होने से सशय में कारण कैसे हो सकता है ? दूसरी बात यह है कि असाधारण धर्म से संशय को निवृत्ति होती है न कि उद्भव । यदि असाधारण धर्म संशय में कारण होता, तो वह संशय का निवर्तक कैसे बनता? अतः असाधारण धर्म संशय का कारण नहीं बन सकता, ऐसा प्रशस्तपाद का कथन है। - इसका समाधान यह है कि असाधारण धर्म भी विरुद्वविशेषों को स्मृति कराकर संशय का कारण बन सकता है । जैसे-शब्द आकाशविशेषगुणत्व धर्म के कारण अनित्य घटादि तथा नित्य आत्मादि दोनों से भिन्न है । अतः शब्द नित्य आत्मादि से व्यावृत्त होने के कारण घटादि की तरह अनित्य है अथवा अनित्य घटादि से व्यावृत्त होने के कारण आकाशादि की तरह नित्य है। नित्यत्व अनित्यत्व रूप दो विरोधी धर्मों का एक अधिकरण शब्द में संभव नहीं, अतः उपर्यत रीति से आकाशविशेषगुणत्व धर्म शब्द में नित्यत्व व अनित्यत्व रूप संशय का जनक हो जाता है। असाधारण धर्म को संशय का कारण मानने पर संशय की निवृत्ति नहीं होगी-यह कथन भी संगत नहीं क्योंकि शब्द में कृतकत्वादि विशेषधर्मो के ज्ञान से संशय को निवृत्ति बन सकती है। श्रावणत्वादि की तरह कृतकत्वादि विशेषधर्म को शब्द के नित्यत्व-अनित्यत्व संशय में कारण मानना संगत नहीं, क्योंकि कृतकत्वादि धर्म लोक में निश्चित रूप से अनित्यत्व सहचारी घटादि में ही उपलब्ध है। 1 न्यायभूषण, पृ. १५. 2. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. १९५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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