SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणसामान्यलक्षण २५ सत्रकार ने 'उपलमध्यनुपलब्ध्यव्यवस्था' इत्यादि का उपादान कुतर्करूप आशंका का परिहार करने तथा सहकारियों के उदाहरण के लिये किया है, न कि इसके द्वारा संशय की सम्पूर्ण सामग्री का उपस्थापन किया गया है, क्योंकि इनसे भिन्न भी अदृष्ट, अन्तःकरणादि संशय को सामग्री है, जिसका यहां अभिधान नहीं किया गया है, । जैसे--कोई व्यक्ति यह कहे कि समानधर्मोपलम्भ संशय का कारण नहीं, क्योंकि समानधोपलम्भ होने पर भी रास्ते चलते हुए पुरुष को तृणादि में संशय नहीं होता । इसका उत्तर यही है कि केवल समानधर्मोपलब्धि ही संशय में कारण नहीं है, किन्तु विशेष धर्मों को स्मृतिरूप आकांक्षा भी संशय में कारण है। समानधर्मोपलब्धि विशेषाकांक्षा के अभाव में संशय की जनक नहीं है, तो उसे कारण कैसे माना जायेगा, यह कथन उपयुक्त नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर सहकारि कारण के अभाव में किसी भी कारण के कार्य का जनक न होने से उसमें अकारणतापत्ति दोष आयेगा । इसी प्रकार दूरस्थ प्रियतमा में समानधर्मोपलब्धि तथा विशेषाकांक्षा होने पर भी संशय क्यों नहीं होता? इस शंका के निवारणार्थ 'उपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातः' यह पद दिया गया है। अर्थात् केवल समानधर्मोपलब्धि और विशेषाकांक्षा ही संशय में कारण नहीं है, किन्तु उपलब्धि तथा अनुपलब्धि को अव्यवस्था भी कारण है । दूरस्थ प्रियतमा में इन कारणों के न होने से संशय नहीं हो रहा है, क्यों यदि विद्यमान प्रियतमा की उपलब्धि के समान अविद्यमान प्रियतमा की उपलब्धि होती, तो उपलभ्यमान प्रिया में संशय हो सकता था । जैसे-सज्जल तथा मृगमराचिकारूप असज्जल दोनों की उपलब्धि होने के कारण सत् की ही उपलब्धि होती है, इस व्यवस्था के न होने से वहां संशय बन जाता है। इसी प्रकार वेग से जाते हुए मनुष्य को पनसादि वृक्षों में वृक्षत्व की उपलब्धि और उपलब्धि तथा अनुपलब्धि की अव्यवस्था होने पर भी विशेषकांक्षा न होने से संशय नहीं होता है। अतः सकलसहकारियुक्त समानधर्म ही संशय में कारण है न कि एक सहकारी से युक्त । यद्यपि उपर्युक्त सहकारियों से भिन्न अष्टादि भी संशय में सहकारिकारण हैं, तथापि वे सभी कार्यों में सहकारी हैं. उनका उपादान न करने पर भी उनमें सहकारिकारणता प्राप्त है । अतः सत्र में सहकारिकारण रूप से उपादान नहीं किया गया है। संशय के सामान्यकारणों के निर्देश के पश्चात् सत्र में निर्दिष्ट संशय के विशेष कारणों के निर्देशपूर्वक संशय के भेदों का निरूपण किया जा रहा है। १ समानधर्मोपलब्धि सूत्र में समानधर्मपद मे 'समानश्चासौ धर्मः' तथा 'समानानां धर्मः' इस प्रकार कर्मधारय तथा षष्ठी तत्पुरुष दोनों समासे का अवलम्बन है । 'समानश्चासौ I. न्यायभूषण, पृ. १४. 2. वही. भान्या-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy