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न्यायसार
अन्यथा प्रथम ज्ञान को संशयात्मकता या निश्चयात्मकता के लिये विशेष-दर्शन को निमित्त मानने पर उस विशेष-दर्शन को अपनी निश्चयात्मकता अथवा संशयोत्मकता के लिये द्वितीय विशेष-दर्शन की तथा द्वितीय विशेष-दर्शन को अपनी संशयात्मकता अथवा निश्चयात्मकता के लिये तृतीय विशेषदर्शन की अपेक्षा होने से अनवस्थाप्रसक्ति होगी । अतः अदृष्टादि निमित्त से भी ज्ञान की संशयात्मकता अथवा निश्चयात्मकता माननी होती है । इस प्रकार प्रथम क्षणोत्पन्न ज्ञान भी अदृष्टादि निमित्त से संशयात्मक हो सकता है और अनवधारणात्मक ज्ञान संशय है, यह लक्षण उपपन्न हो जाता है। 'अनवधारणज्ञानं संशयः' इस लक्षण में किसी प्रकार का दोष नहीं है, अधिक की आवश्यकता नहीं, तथापि इससे सूत्रकारकृत समानानेकधर्मोपपत्तेविप्रतिपत्तरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातो विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः' इस सूत्र को अनर्थकता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि यह सूत्र संशय के विभाग और विशेष लक्षणों के बोधन के लिये है। भासवज्ञ ने भी 'स च समानधर्मानेकधर्मविप्रति. प्रत्युपलब्ध्यनुपलब्धिकारणभेदात् पंचधा भिद्यते ५ यह कहकर उपर्युक्त तथ्य को स्पष्ट कर दिया है।
समानधर्म या अनेक-धर्मादि की उपलब्धिमात्र से संशय लोक में नहीं होता, फिर सत्र में समानधर्मादि की उपलब्धि को संशय को कारण कैसे बतलाया गया है, इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि समानधर्मादि संशय के सामान्य कारण नहीं, अपि तु इनका निर्देश संशय के विशेष कारण के रूप में किया गया है । अर्थात् संशयसामान्य के ये कारण नहीं, किन्तु संशयविशेष के कारण हैं और इन असाधारण कारणों का निर्देश संशय को समानजातीय अन्य संशयों से व्यावृत्त करने के लिये है।
तात्पर्य यह है कि किसी भी वस्तु के असाधाण कारण का कथन उस वस्तु को समानजातीय वस्तुओं से व्यावृत्त करता है और उसके सामान्यकारण का कथन विजातीय वस्तुओं से । जैसे-इन्द्रियार्थसन्निकर्षात्पन्न प्रमा प्रत्यक्ष प्रमा है। यहां पर इन्द्रियार्थसन्निकर्षरूप असाधारण कारण का कथन प्रत्यक्ष प्रमा को सजातीय अनुमित्यादि प्रमाओं से व्यावृत्त करता है तथा 'प्रमा' यह सामान्यलक्षण प्रत्यक्ष प्रमा को विजातीय संशयविपर्ययादि से पृथक् करता है । अनुमित्यादि ज्ञान प्रमात्वेन प्रत्यक्ष प्रमा के सजातीय हैं और संशय-विपर्यय ज्ञान अप्रमात्वेन प्रत्यक्ष प्रमा के विजातीय हैं। इसी प्रकार संशय के लक्षण में भी 'अनवधारणज्ञानं संशयः' यह सामान्य लक्षण संशय का प्रमाज्ञान से व्यवच्छेद बतलाता है तथा समानधर्मादि की उपलब्धिरूप विशेष कारणादि का कथन एक संशयज्ञान को दूसरे संशयज्ञान से भिन्न बतलाता है । 1. न्यायसूत्र, ११११२३ 2. न्यायसार, पृ. १. 3. वही, पृ. १. 4. न्यायभूषण, पृ. १४.
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