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________________ प्रमाणसामान्यलक्षण શરૂ विपर्ययज्ञान की व्यावृत्ति के लिये दिया गया है। ये दोनों सम्यक् ज्ञान नहीं है, अतः इनके साधन इन्द्रियसंनिकर्षादि प्रमाणाभासों में प्रमाणलक्षण की अतिव्याप्ति नही, क्योंकि प्रमाणों का सम्यक्त्व तथा प्रमाणाभासों का असम्यक्त्व उनसे जन्य फल पर हो आधारित है। संशयनिरूपण 'सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम्' इस प्रमागलक्षण में 'सम्यक्' पद से संशय और विपर्यय की व्यावृत्ति बतलाई गई है। अतः यह सिद्ध है कि सम्यक् ज्ञान तथा असमीचीन ज्ञान भेद से ज्ञान द्विविध है और संशय असम्यक् ज्ञान है । अतः प्रसंगप्राप्त संशय का स्वरूपज्ञानार्थ निरूपण किया जा रहा है, क्योंकि बिना रूरूपज्ञान के किसोका ग्रहण अथवा परित्याग नहीं हो सकता । भाष्यकार तथा वार्तिककार का अनुसरण करते हुए भासर्वज्ञ ने 'अनवधारणज्ञानं संशयः' यह संशय का लक्षण किया है। यहां 'अनवधारणं च तजज्ञानमः - यह कर्मधारय समास है। अर्थात् अनिश्चयात्मक ज्ञान संशय कहलाता है । यद्यपि यह लक्षण व्याघात दोष से युक्त प्रतीत होता है, क्योंकि ज्ञानशब्द 'ज्ञायते प्रमीयतेऽवधार्यतेऽर्थोऽनेन' इस व्युत्पत्ति से तथा 'ज्ञानं मोक्षककरणम्, मोक्षे धीनिम् इत्यादि वचनों से निश्चयज्ञानपरक हैं। तथापि यहां ज्ञान शब्द व्युत्पत्ति से निश्चयज्ञान का बोधक न होकर सामान्यतः ज्ञानवजातिभान् ज्ञानसामान्व का बोधक है, जैसे कि गो शब्द व्युत्पत्ति से गमनशील अर्थ का बोधक न होकर गोत्वजातिमान अर्थ का बोधक है । ज्ञानत्व जाति निश्चयात्मक तथा अनिश्चयात्मक दोनों ज्ञानों में समवेत है। अनिश्चयात्मक ज्ञान संशय होता है - यह संशय का लक्षण मानने पर निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में भी लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं है, क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी उससे होने वाली स्मृति के निश्चयात्मक होने से निश्चयात्मक ज्ञान है। 'यह वस्तु वहां नहीं है, इसके समान ही वह वस्तु है' - इत्याकोरक निश्चयात्मक स्मृति से यह स्पष्ट है कि जिस निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का यह स्मरण है वह भी निश्चयात्मक है । यद्यपि प्रथम क्षण में विशेषदर्शनादि निमित्त के बिना इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न होने वाले ज्ञान को संशयात्मक या निश्चयात्मक कहना संभव नहीं, अतः ज्ञान की अनवधारणात्मकता का निश्चय नहीं होने से 'अनवधारणज्ञानं संशयः' यह संशय-लक्षण अनपपन्न है, तथापि विशेषदर्शनादि कारणों के न होने पर भी अदृष्टादिसामग्री के कारण ज्ञान को संशयात्मक या निश्चयात्मक मानना पड़ता है। 1. सम्यग्ग्रहण संशयविपर्ययापोहार्थम् । -वही, पृ. १. 2. न्यायसार, पृ. १. 3. कोलोपनिषद, पृ. २, तान्त्रिक टेक्स्स , कलकत्ता । 4. अमरकोश, १८५।६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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