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न्यायसार
इस लक्षण में भी साधन पद पूर्ववत् साधकतम का उपलक्षण है । अतः प्रमाता
और प्रमेय में प्रमाणलक्षण अतेव्याप्त नहीं है। अन्य आचार्यो ने 'प्रमाकरण प्रमाणम्' 'प्रमाणं हि प्रमाकरणम्' इस प्रकार के लक्षण प्रस्तुत किये हैं। इन लक्षणों में साधन या हेतु के स्थान पर करणपद का निवेश कर देने से 'साधकतमं करणम् इस पाणिनीय सूत्र के अनुसार साधकतम अर्थ का स्वतः लाभ हो जाता है, साधन पद को साधकतम का उपलक्षक नहीं मानना पड़ता ।
लोक और शास्त्र दोनों में ही प्रमाण शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्रपूर्वक माङ् धातु से ल्युत् प्रत्यय करने पर प्रमाण शब्द निष्पन्न होता है । ल्युद् प्रत्यय भाव, करण और अधिकरण तीनों अर्थो में होता है । अतः प्रमाण शब्द का यौगिक अर्थ प्रमा या प्रमा का साधन या प्रमा का आश्रय है। प्रमाणलक्षण में साधन पद का प्रयोग न करने पर इस लक्षण की प्रमाता, प्रमेय तथा प्रमारूप फल में अतिव्याप्ति है, क्योंकि 'अनुभवति' इस व्युत्पत्ति से प्रमाता, 'अनुभूयते' इस व्युत्पत्ति से प्रमेय तथा 'अनुभूतिः' इस व्युत्पत्ति से प्रमारूप फल भी समीचीन अनुभवरूप हैं, अतः लक्षण में साधन पद दिया है । प्रमातादि समीचीन अनुभवरूप हैं किन्तु उसके साधन नहीं हैं, अतः उनमें अतिव्याप्ति नहीं है।
यद्यपि साधन शब्द का प्रयोग करने पर भी प्रमातादि में प्रमाणलक्षण की अतिव्याप्ति पूर्ववत् ही विद्यमान है, क्योंकि 'साधयति,' 'साध्यते,' -इन व्युत्पत्तियों से प्रमाता तथा प्रमेय क्रमशः प्रमाकर्तृत्वेन और प्रमाविषयत्वेन समीचीन अनुभव के साधन हैं, तथापि शाब्दिकों के अनुसार साधन शब्द करणव्युत्पत्तिपरक ही है। अतः उसीका आश्रयण होने से प्रमातादि में अतिव्याप्ति नहीं है। करण का अर्थ पाणिनि ने 'साधकतमं करणम्' सूत्र के द्वारा साधकतम माना है, अर्थात् क्रियासिद्धि में प्रकृष्ट उपकारक कारण करण कहलाता है। जिसके अव्यवहित उत्तरकाल में फल की निष्पत्ति हो, वही प्रकृष्ट कारण कहलाता हैं । इन्द्रियादिव्यापार के बाद ही प्रमारूप फल की निष्पति होती है, अतः वे ही कारण हैं न कि प्रमोता और प्रमेय ।
प्रमाणलक्षण में अनुभव पद से अज्ञानरूप* यागादि कर्म तथा स्मृति की व्यावृत्ति की गई है, क्योंकि ये दोनों ही अनुभवरूप नहीं हैं। न्यायमतानुसार स्मृति अनुभवभिन्न ज्ञान है तथा संस्कारजन्य है, जबकि अनुभव प्रमाणों द्वारा प्रसूत अभिनव ज्ञान होता है । यागादि भो ज्ञानभिन्न क्रियारूप होने से अनुभव नहीं हैं। ___ लक्षण में सम्यक् पद 'सम्यक् चासौ अनुभवः' इस कर्मधारय समास के द्वारा अनुभव का विशेषण है। यह पद स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इत्याकारक संशयज्ञान तथा शुक्तिरजतादि 1. तर्कभाषा, पृ. १८ 2. तात्पर्यपरिशुद्धि, ११/१ 3. पा.सू. ११४१४२ 4. विद्यां चाविद्यां च (ईशावास्योपनिषद्, ११)। यहां अविद्या शब्द से यागादि कर्म का ग्रहण है। 5. स्मरणाज्ञानव्यवच्छेदार्थमनुभवमहणम् ! -न्यायसार, प. २
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