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द्वितीय विमर्श
प्रमाणसामान्यलक्षण
प्रमाणलक्षणविमर्श
यद्यपि न्यायसूत्रकार महर्षि अक्षपाद ने प्रमाणसामान्य का लक्षण नहीं दिया है, तथापि न्यायभाष्यकार वात्स्यायन ने 'प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि '' इस सूत्र की व्याख्या करते हुए 'प्रमीयतेऽनेन' इत्याकारक प्रमाण शब्द के निर्वचन से 'उपलब्धिसाधनं प्रमाणम्' यह प्रमाणसामान्य का लक्षण बतलाया है । इसी का स्पष्टीकरण उन्होंने 'स (प्रमाता) येनार्थ प्रमिणोति विजानाति तत् प्रभाणम्' 4 यह किया है । वार्तिककार ने भी 'उपलब्धिहेतुः प्रमाणम् यह प्रमाणसामान्य का लक्षण किया है । उपर्युक्त लक्षणों की प्रमाता और प्रमेय में अतिप्रसक्ति इसलिये नहीं है कि प्रमाता ओर प्रमेय तो कर्तृत्वेन या विषयत्वेन प्रमाण में चरितार्थ हो जाते हैं, परन्तु प्रमाण अचरितार्थ रहता है, अतः वही अर्थोपलब्धि का साधन है । लक्षण में हेतु पद साधकतम का बोधक है और उपलब्धि में प्रकृष्ट उपकारत्वरूप हेतुता प्रमाण में ही है न कि प्रमाता और प्रमेय में, क्योंकि प्रमाता और प्रमेय के विद्यमान होने पर भी प्रमाण के अभाव में अर्थोपलब्धि नहीं होती और उसके होने पर हो जाती है ।
अर्थोपलब्धि कभी-कभी भ्रमात्मक अथवा संशयात्मक भो हो सकती है । इसलिए जयन्त भट्ट ने वार्तिककारोक्त लक्षण का परिष्कार करते हुऐ अव्यभिचारी और असन्दिग्ध इन दो विशेषणों का उसमें सयोजन किया हैं ।" आचार्य भासर्वज्ञ ने भी इसी आधार पर अपने प्रमाणसामान्य के लक्षण में सम्यक् पद का संयोजन कर 'सम्यगनुभव साधनं प्रमाणम्" यह प्रमाणसामान्य का लक्षण प्रस्तुत किया है । 1. न्यायसूत्र
१।११३
2. उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानीति समाख्यानिर्वचनसामर्थ्याद् बोद्धव्यम् । न्यायभाष्य, १२१/३ 3. The Lacuna caused by the omission of general definition of 'Pramana' in the aphorist Akṣapada's series of definitions was filled by Vatsyayana with his etymological interpretation of the word Pramaņa'. — Sanghvi, Sukhlal, Advanced Studies in Indian Lcgic & Metaphysics, p. 34.
4. न्यायभाष्य, १1१1१
5. न्यायवार्तिक, १1१/१
6. अव्यभिचारिणोम् असन्दिग्धाम् अर्थोपलब्धिम् ... । -न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. १२. 7. न्यायसार, पृ. १.
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