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न्यायसार
एक ही है और वह है- विपरीत प्रसंग का प्रतिषेध । प्रतिपक्षप्रतिषेध द्वारा हेतु के अवनाभाव का समर्थन हो दोनों से अभिप्रेत है ।
यदि यह कहा जाय कि निगमन का अभिधान होने पर भी निगमनार्थ के प्रति विप्रतिपत्तिग्रस्त प्रतिवादी को बाधक प्रमाण द्वारा ही प्रतिपक्षाभाव का बोधन करना पड़ता है, इसलिये विपक्ष- बाधक प्रमाण का ही साक्षात् कथन करना उचित है न कि निगमन का । इस पर भासर्वज्ञाचार्य कहते हैं कि निगमनार्थ के विषय मैं विप्रतिपति होने पर विपक्ष बाधक प्रमाण का उपन्यास संगत होता है । अपि च, तदर्थसाधक प्रमाण का अभिधान भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि उस प्रमाण के अर्थ के प्रति विप्रतिपद्यमान पुरुष को जिस प्रमाणान्तर द्वारा बोध प्रदान किया जायेगा, उसीका प्रयोग करना चाहिये । इस प्रकार अनवस्थालतालूता लग जायेगी । अतः निगमनार्थ में विप्रतिपत्ति होने पर ही प्रतिपक्षाभावसाधकरूप प्रमाण का तथा देवादि द्वारा प्रतिपादित अर्थ में विप्रतिपत्ति होने पर तत्साधक प्रमाणान्तर का उपन्यास उचित है, अन्यथा नहीं | 1
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तस्माद्यदैव यदवयवार्थ प्रति विप्रतिपद्यते परस्तदव तदवयवार्थसमर्थनार्थं बाधकं साधकं वा प्रमाणान्तरमुच्यत इत्यलं प्रसंगेन । न्यायभूषण, पृ. ३२८.
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