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________________ न्यायसार अर्थात् प्रतिज्ञा साध्यनिर्देश ही है, उससे भिन्न प्रतिज्ञा नहीं है इस रूप से प्रतिज्ञा का क्षेत्र नियमित होगा । ऐसी स्थिति में साध्यनिर्देश अनवधारित व अनियमित रहेगा अर्थात् प्रतिज्ञावाक्यरहित अन्य प्रकार के साध्यनिर्देश में प्रतिज्ञारूप लक्ष्य के न होने पर भी साध्यनिदेशरूप लक्षण की सत्ता होने से प्रतिज्ञालक्षण की अतिव्याप्ति होगी तथा 'साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञैव' इस रूप से अवधारण माना जायेगा, तो उक्त रोति से यह नियमन या अवधारण साध्यनिर्देश का होगा न कि प्रतिज्ञारूप लक्ष्य का । ऐसी स्थिति में प्रतिज्ञा के अनिर्धारित होने से लौकिक प्रतिज्ञा में प्रतिज्ञारूप लक्ष्य की सत्ता होने पर भी साध्यनिर्देशरूप लक्षण के अभाव से लक्षण में अव्याप्ति दोष होगा। इसन्धिये उपर्युक्त दोषपरिहारार्थ उद्योतकार ने 'सर्व वाक्यं सावधारणं भवति' इस न्याय को सार्वत्रिक नहीं माना है। अतः प्रतिज्ञालक्षण में अनावश्यक होने से किसी प्रकार का अवधारण नहीं है । यथा-'एष पन्थाः चुघ्नं गच्छति' इस वाक्य में किसी प्रकार को अवधारण नहीं है । हाँ, यदि कहीं लक्षण की अतिप्रसक्ति आदि हो, तो तन्निवारणार्थ अवधारण माना जा सकता है। उद्योतकराचार्य की तरह भासर्वज्ञ की भी यही मान्यता है कि यहां अवधारणा की आवश्यकता नहीं है। 'साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा'--इस सौत्रलक्षण में शब्द के सामर्थ्य से ही यह सिद्ध होता है कि साध्यनिर्देश ही प्रतिज्ञा है, असाध्य का निर्देश नहीं, क्योंकि शब्दसामर्थ्य या मीमांसकाभिमत लिंगप्रमाण से ही यह ज्ञात हो जाता है। यदि असाध्यनिर्देश को प्रतिज्ञा कहना अभीष्ट होता है, तब 'निर्देशः प्रतिज्ञा' यह लक्षण किया जाता । आचार्य भासर्वज्ञ ने 'प्रतिपिपादयिषया पक्षवचनं प्रतिज्ञा' इस स्वोक्त प्रतिज्ञालक्षण तथा 'साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा'--'इस सूत्रकारोक्त प्रतिज्ञालक्षण की समानार्थकता का प्रदर्शन करते हुए कहा है कि साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी हो सूत्र में साध्य शब्द से अभिप्रेत है, अतः साध्यनिर्देश और पक्षवचन दोनों समानार्थक हैं । यहाँ भासर्वज्ञ ने यह संकेत किया है कि वात्स्यायन तथा उद्योतकर को धर्मिविशिष्ट धर्मनिर्देश प्रतिज्ञा के रूप में अभीष्ट नहीं है । परन्तु भासर्वज्ञ का कथन है कि धमिविशिष्ट धर्म भी सूत्र में साध्य शब्द 1. सर्वस्मिन् वाक्येऽवधारणमिति न बुध्यामहे । तद्यथा गोपालकेन मार्गेऽपदिष्टे 'एष पन्थाः स्त्रुघ्नं गच्छतीति' नावधारणस्य विषयं पश्यामः ।...सर्वत्र च सावधारणं कुर्वाणो लोकं बाधते इति । यत्र च विशेषणस्यावकाशस्तवावधारणस्यापोति । -न्यायवार्तिक, ११११३३ 2. मीमांसादर्शन के द्वितीय अध्याय में पति-लिग-वाक्य-प्रकरण-स्थान-समाख्या इन प्रमाणों में लिंगप्रमाण का लक्षण दिया है-'सामथ्य सर्वशब्दानां लिङ्गमित्यभिधीयते । लौगाक्षिभास्कर ने भी कहा है- 'शब्दसामथ्य' लिङ्गम् (अर्थसंग्रह, पृ. ८६)। 3. (अ) प्रज्ञापनीयेन धर्मेण धर्मिणो विशिष्टस्य परिग्रहवचनं प्रतिज्ञा साध्यनिर्देशः । -न्यायभाष्य, १1१1३३ (ब) न ब्रमो धर्मि मात्रं साध्यम्, अपि तु प्रज्ञापनीयधर्मविशिष्टो धर्मी साध्यः । -न्यायवार्तिक, १1१1३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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