________________
अनुमान प्रमाण
उदाहरणाभास है, क्योंकि शब्दरूप पक्ष में रहने वाला अमूर्तत्व धर्म परमाणु में नहीं रहता । तद्धर्मभावी' से साध्यविकल का निराकरण हो जाता है। जैसे नित्यः शब्दः मूत्वात् कर्मवत्' इस अनुपान में कर्मरूप दृष्टान्त साध्यवेकल है, क्यों के शब्दरूप पक्ष का धर्म नित्यत्व कर्म में नहीं है । इससे उभयविकल का भी निराकरण हो जाता है। जैसे 'नित्यः शब्दः अमूर्तत्वात् घटवत्' इस अनुमान में घट दृष्टान्त साध्यधर्म अर्थात पक्षधर्म अमूर्तत्व तथा तद्धर्म अर्थात् साध्यरूप पक्षधर्म नित्यत्व दोनों से विकल है। यह प्रतीत होता है कि जयन्त भट्ट तथा वाचस्पति मिश्र ने प्रशस्तपाद. दिङ्नाग तथा विशेषतया धर्मकीर्ति से प्रभावित होकर उदाहरणाभासों का विभाग किया है । अतः यह कहा जा सकता है कि भासर्वज्ञ के पूर्ववर्ती उदाहरणाभासों का विभाग करने वाले आचार्यों में प्रशस्तपाद, दिङ्नाग तथा धमकी जयन्त भट्ट आदि थे। इन्हीं आचायों से प्रभावित होकर भासर्वज्ञ ने दोनों के ६-६ भेद बतलाये हैं। प्रथम तीन के साथ प्रशस्तपाद तथा दङनाग ने असिद्ध शब्द का प्रयोग किया है और धर्मकीर्ति ने विकल शब्द का । भासर्वज्ञ ने धर्मकीति तथा जयन्त भट्ट के अनुसार प्रथम तीन के साथ भी विकल शब्द का प्रयोग किया है। इस विषय में भासर्वज्ञ धर्मकीति से प्रभावित है. यह मान्यता प्रो. ध्रुव तथा प्रो. देवधर ने अभिव्यक्त का, परन्तु प्रशस्तपाद के प्रभाव का भी प्रतिषेध नहीं किया जा सकता । जयन्त भट्ट की तरह भासर्वज्ञ ने दोनों वर्गो के उदाहरणोभासों में प्रथम चार को अर्थदोष और अन्तिम दो को वचनदोष कहा है । नव्ययाय के प्रवर्तक गंगेशोपाध्याय ने भो इन्हों बारह भेदों का उल्लेख किया है, अन्तर केवल यह है कि उन्होंने अन्तिम चार भेदों को अनुपदर्शितान्वय, विपरीत उपदर्शितान्त्रय, अनुपदर्शित. व्यतिरेक और विपरीत उपदर्शितव्यतिरेक इन नामों से व्यपदेष्ट किया है। वाचस्पति मिश्र, जयन्त भट्ट, भासर्वज्ञ और गंगशोपाध्याय द्वारा निरूपित उदाहरणाभास स्वल्प परिवतन के साथ प्रशस्तपाद के बाहर भेदों का ही विभिन्न शब्दावली में उल्लेख है। परष्कृत नामों के अतिरिक्त इनमें किसी तथ्य का प्रतिपादन परिलक्षित नहीं होता।
1. तात्पर्यटीका, 1/1/३६ 2. Sanghavi Sukhlal, Advanced __Metaphysics, p. 107. 3. न्यायसार, पृ. १३
Studies in Indian
Logic
and
4. Dharmakirti's list is adopted in the Nyayasāra of Bhāsarvajāa ..
-The Nyayapravesa, Part I, Notes, p. 77 5. Our author has closely followed Dharmakirti in this respect.
--Nyāyasāra, Notes, p, 41
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org