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________________ न्यायसार से साध्यसाधर्म्य के कारण तथा वैधHदृष्टान्त का साधर्म्यदृष्टान्त से साध्यवैधर्म्य के कारण भेद है । इस भेदकारण के प्रदर्शनार्थ 'साध्यसाधात्' तथा 'साध्य. वैधात्' में कारण र्थक पंचमी का प्रयोग किया गया है। दृष्टान्त के सामान्य लक्षण में इस बात को न बत लाकर यहां बतलाने का प्रयोजन है-भेदसहित उदाहरण लक्षण का प्रदर्शन ।' उदाहरणाभास 'सम्यग्दृष्टान्तवचनम् उदाहरणम्' इस उदाहरणलक्षण में 'सम्यक्' पद उदा. हरणाभासों की व्यावृत्ति के लिये है, यह कहा गया है। अतः उदाहरणनिरूपण के पश्चात् प्रसंगतः व्यावर्त्य उदाहरणाभासों का निरूपण किया जा रहा है। . भारतीय दर्शनशास्त्र के ग्रन्थों में जिस प्रकार हेत्वाभासों का विशद निरूपण प्राप्त होता है, उसी प्रकार उदाहरणाभासों का भी । स्त्रवाक्यों में परिवर्जन तथा परकीय वाक्यों में उनके उद्भावन के लिये उदाहरणाभासों का ज्ञान आवश्यक है। उदाहरणाभासों के स्वरूप तथा संख्या के विषय में भासर्वज्ञाचार्य पूर्ववर्ती आचार्यों से प्रभावित प्रतीत होते हैं। प्रशस्तपादाचार्य ने साधर्म्य तथा वैधर्म्य दोनों प्रकार के निदर्शनाभासों में प्रत्येक के ६ प्रमेदों का उल्लेख किया है । बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग ने दोनों के पाँच-पाँच प्रमेद बतलाये हैं। धर्मकीर्ति ने दोनों प्रकार के उदाहरणाभासों में से प्रत्येक के ९ प्रभेद किये हैं। न्यायसूत्र, न्यायभाष्य तथा न्यायवार्तिक में उदाहरणाभासों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता । भासर्वज्ञ से. पूर्ववती नैयायिकों में जयन्त भट्ट ने दोनों प्रकार के उदाहरणाभासों के ५-५ भेदों का सोदाहरण उल्लेख किया है। जयन्त भट्ट ने प्रथम तीन भेदों को वस्तुदोषकृत तथा शेष दो को वचनदोषकृत माना है । सूत्रकार द्वारा उदाहरणाभासों का उल्लेख न करने के विषय में जयन्त भट्ट ने स्पष्टीकरण किया है-'एते च वस्तुवृत्तेन हेतुदोषा एव तदनुविधायित्वादत एव हेत्वाभासवत्सूत्रकृता नोपदिष्टाः अस्माभिस्तु शिष्यहिताय प्रदर्शिता एव' ।' तात्पर्यटीका में वाचस्पति मिश्र ने यह निर्देश किया है कि 'साध्यसाधात् तद्धर्मभावी दृष्टान्त उदाहरणम्' इस सूत्र में 'साध्यसाधर्म्य' के ग्रहण से साधन विकल की उदाहरणाभासता ज्ञात होती है। जैसे-'नित्यः शब्दः अमूर्तत्वात् परमाणुवत्' इस अनुमान में परमाणुरूप दृष्टान्त 1. न्यायभूषण, पृ. ३२१ 2. प्रछस्तपादभा, पृ. १९८-१९९ 3. न्यायप्रवेश, भाग १, पृ. ५ 4. न्यावबिन्दु, पृ. ७-८ . 5. न्यायमंजरी, उत्तर भाग, पृ. १४० 6. वही, पृ. १४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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