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________________ प्रमेयनिरूपण २११ (९) प्रेत्यभाव सूत्रकार ने 'पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभाव'1 इस सूत्र के द्वारा पूर्वोत्पन्न शरीरादि का परित्याग कर पुनः शरीरान्तर को प्राप्त को प्रेत्यभाव बतलाया है । सूत्र में पुनः' पद से यह सूचित किया गया है कि यह प्रत्यभाव एक अनादि परम्परा है। इसका अवसान अपवर्ग के द्वारा ही होता है. इस बात का बतलाने तथा जन्ममरणरूप दुख की अतिशय भावना के लिये दह, इन्द्रियों से पृथक् प्रेत्यभाव का कथन किया गया है । (१०) फल सूत्रकार ने फल का लक्षण ' प्रवृत्तिदोषजनितोऽर्थ. फलम् १ यह किया है। विहितप्र तषिद्धरूप द्विवेध प्रवृत्ति तथा राग द्वेष-मोहरूप दोषों से व्यवाहतरूप से उत्पन्न अर्थ फल कहलाता है । यह फल हेयोपादेय भेद से दो प्रकार का है । हेय प्रथमतः मुख्य-गौण भेद से द्विावध होता हुआ अनेक प्रकार का है और उपाय फल अज्ञानियों के लिये मुख्य तथा गोण भेद से दो प्रकार का सुख है। ज्ञानियों के लिये कोई भी सुख उपादेय नहीं, किन्तु सभी हेय हैं, क्योंकि उनके लिये लाकिक सुख भो दुःख का ही कारण होता है। इसीलिये योगदशन में 'दुःखमेव सर्वविवेकमः । सूत्र के द्वारा ज्ञानी के लिये सभा लोकिक सुखों को दुःख रूप ही बनाया है। सुख और दुःख दोनों हो प्राणी के कमो से उपार्जित हैं। अतः मानव को सनमें समता की भावना करनी चाहिये । एतदर्थ फलरूप प्रमेय का दुःख से पृथक् कथन किया है। (११) दुःख दुःख का लक्षण सूत्रकार ने 'बाधनालक्षण दुःखम्' यह किया है । लक्षण में 'लक्षण' शब्द स्वभाव अर्थ का बोधक है । अर्थात् मुख्य दु ख बाधनास्वभाव होतो है अर्थात् उसका पीड़ा स्वभाव है। (१२) अपवर्ग अपवर्ग का लक्षण सूत्रकार ने 'तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः' यह किया है। मुख्य सथा गौण दुख से अत्यन्त विमुक्ति या उसका आत्यन्तिक विच्छेद अपवर्ग कहलाता है। भासर्वज्ञसम्मत अपवर्गस्वरूप का विशद विवेचन अष्टम विमर्ग में किया जायेगा। इस प्रकार लक्षणभेद से द्वादशविध ग्रमेय का निरूपण किया गया है। 1. वही, १/११९ 4. न्यायसूत्र, १११।२१ - 2. वही, ११२० 5. वही, २९ 3. योगसूत्र, २०१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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