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२१.
न्यायवार मन के इन्दिय होने पर भी उसे इन्द्रियरूप प्रमेय से पृथक् मानने के कारण का उल्लेख करते हुए भामर्वज्ञ ने कहा है कि अन्य इन्द्रियां एक-एक विषय का प्रहण करती हैं जैसे चक्ष रूप का, घ्राण गन्ध का. किन्त मन शब्दस्पर्शादि सभी विषयों का ग्रहण करता है। इन्द्रियां भौतिक हैं। जैसे, घ्राण पार्थिव, रसन जलीय चक्षु तेजस आदि । किन्तु मन भौतिक नहीं है। अतः इन दो वैधयों के कारण मन का इन्द्रियरूर प्रमेय से पृथक् कथन किया गया है । तथा सभी इन्द्रियों की प्रवृत्ति मनोमूलक है, बिना मन के इन्द्रियों की प्रवृत्ति विषय में नहीं होती और मन के जय से सभी इन्द्रियों का वशीकरण बन जाता है। अतः मनोवशीकरण में या मनोजय में मुमुक्ष को अतिशय प्रयास करना चाहिये इस बात को बतलाने के लिये भी अन्य इन्द्रियों से मन का पृथक् प्रमेय के रूप में कथन किया गया है।
(७) प्रवृत्ति वाचिक मानस, कायिक व्यापार का नाम प्रवृत्ति है, जैसाकि सुत्रकार ने कहा है:-'प्रवृत्तिर्वाग्बुद्धिशरीरारम्भः । यद्यपि सूत्र में मन पद नहीं दिया गया है, तथापि सूत्रस्थ 'बुद्धि' पद 'बुध्यतेऽनेन' इम करणव्युत्पत्ति से ज्ञानसाधन मन को पतला रहा है । भाष्यकार ने भी यही संकेत किया है। यह त्रिविध प्रवृत्ति विहित तथा प्रतिषिद्ध भेद से दो प्रकार की है । विहित प्रवृत्ति का फल पुण्य होता है और प्रतिषिद्ध प्रवृत्ति का फल पाप । अर्थात् 'स्वर्गकामो ज्योतिष्टोमे यजेत' इत्यादि शास्त्र बहित प्रवृत्ति पुण्य को तथा 'नानृतं बदेत्' इत्यादि शास्त्रप्रतिषिद्ध अनूतभाषणादि प्रवृत्ति पाप को उत्पन्न करती है।
(८) दोष विहित और प्रतिषिद्ध कर्मों में पुरुष को प्रवृत्त करने वाले राग द्वेष, मोह दोष कहलाते हैं, जै कि सूत्रकार ने कहा है 'प्रवर्तनालक्षणाः दोषाः ।, सूत्र में 'लक्षण' शब्द स्वभावार्थक है। भाष्यकारादि ने 'अवतनालक्षणाः दोषाः' की व्याख्या अन्य प्रकार से की है । उनके अनुसार प्रवर्तना का अर्थ प्रवृत्तिहेतुत्व है और वह रामादिगत धर्म है. जो कि स्वसंवेद्य है । वह जिनका लक्षण अर्थात चिह्न है. वे दोष कहलाते हैं । इस व्याख्या का पर्यवमान भी उपयुक्त प्रवृत्तिस्वभाव राग द्वेष. मोह दोष कहला हैं. इसी में है । वे प्रवर्तनालक्षण दोष राग, द्वेष, मोह भेद से सीन हैं. क्योंकि सूत्रकार ने 'तत्त्रैराश्यं रागद्वेषमोहार्थान्तरभावात् ' इस सूत्र के द्वारा इन्हों तीनों को दोष बतलाया है।
1 न्यायसूत्र, १११७ 2. 'मनोऽत्र बुद्धिरित्यभिप्रेत', बुध्यतेऽनेनेतिबुद्धिः । -न्यायभाष्य, १।१।१७ 3. सासूध, 19110 4. न्यायभाय, 1111८ 5. श्यामसूत्र, १३
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