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प्रमेयनिरूपण
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भोग उपलब्धि है तथा विषयाकाररूप से बुद्धि का परिणाम अर्थात बुद्धि का धर्म ज्ञान है इस प्रकार बुद्धि. उपलब्धि व ज्ञान का भेद बतलाया गया है । बुद्ध. उपलब्धि व ज्ञान भिन्न नही हैं, अपितु एक ही हैं. इस तथ्य को बतलाने के लिये पर्यायलक्षण ही बुद्धि का दिया गया है । इसी अभिप्राय से भाष्यकार वात्स्यायन ने भी सूत्र के प्रारंभ में ' अचेतनस्य करणम्य बुद्धर्ज्ञानं वृत्तिः चेतनस्याकर्तुरुपलब्धरिति युक्नित्रिमर्थ प्रत्याचक्षाणक एवेन्माह' ऐसा कहा है । भासर्वज्ञ ने यह भी स्पष्ट निर्देश कर दिया है कि प्रतीति, अवगम और विज्ञान इत्यादि शब्द भा बुद्धि के पर्यायवाची ही हैं । यह ज्ञान प्रमख्यान के द्वारा दोष निमुत्तों के निवृत्त होने पर अपवर्ग का हेतु होता है और निवृत्त होने पर संसार का भी कारण है ।
(६) मन
ज्ञान के साधन आत्मा इन्द्रिय तथा विषयों का सम्बन्ध होने पर भी जिस वारण से एक काल में अनेकज्ञान नहीं होते. वही मन है । अतः एक काल में अनेक ज्ञनों की अनुपन्ति मन का लिङ्ग ( ज्ञापक अनुमापक) है । यही मन का लक्षण है. जैसाकि सूत्रकार ने कहा है- 'युगपज्ञानानुत्पतमनसो लिंगम' | भाज्ञ ने बया है कि आत्मा की तरह उपर्युक्त लिंग ही मन का लक्षण है । घ्राणादि इन्द्रियों का भी गन्धाविज्ञानरूप लिङ्ग ही लक्षण है । तात्पर्य यह है कि आत्मा व्यापक होने से सभी इन्द्रियों से सम्बद्ध है और निद्रारहित पुरुष की इन्द्रियां भी प्रेक्षादि अवसर पर अनेक अर्थों से सम्बद्ध होती है । इस प्रकार ज्ञान के साधन आमा इन्द्रिय तथा अर्थों के सम्बन्ध होने पर भी एक काल में अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति इन्से अतिरिवत किसी को ज्ञान के प्रति करण सिद्ध कर रही है। आत्मादि से भिज्ञान का जो है वह मन है । बिना मन के आत्मादिज्ञानसाधनों के होने पर भी ज्ञान नहीं होता है । इसीलिये उपनिषद् में हिखा है- 'आयना अभूवं नदर्रम मना अभूवं नाष्म इत्यादि । रिट कोशिका में भी मनोऽन्व स्थान से ज्ञान का अभाव बताया है । * मन क्योंकि उपरिमाण है, रस्का एक काल में अनेक इन्द्रियों से सम्बन्ध नहीं हो सकता, अतः एक काल में अनेव ज्ञान भी नहीं हो सकते ।
भाज्ञ ने एक काल में अनेवज्ञानमनुत्पत्ति के अतिरिक्त मन के साधक 'आत्मेद्रियार्थादयः यहि कार्यन्तरापेक्षाः सन्निहितानामपि कार्योत्पादकत्वात् वस्त्रोपक्षित चित्रोत्पादका व वर्ष कादयः, ' 'स्खादयः इन्द्रियपरिच्छेदकाः प्रत्यक्षस वेद्यत्वात् रूपादिवत्' इन अनुमानों का निर्देश भी किया है ।
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1. न्यायभाष्य, ११३१५.
2. न्यायसूत्र, १११।१६
3. न्यायभूषण, पृ. ४२९
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4. सांख्यकारिका, ७
5. न्यायभूषण, पृ. ४४.०
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भान्या-२७
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