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________________ अनुमान प्रमाण १०९ ही है, दूसरा कोई नहीं । अतः प्रमेयत्व हेतु शब्दरूप पक्ष में व्यापक है तथा आकाशविशेष गुणत्वरूप साध्याभाव वाले रूपादि में भी प्रमेयत्व रहता है. अतः यह हेतु विपक्ष का व्यापक भी है । अतः यह हेतु पक्षविपक्ष व्यापक विरुद्ध हेत्वाभास है, क्योंकि यहां सपक्ष के अभाव के कारण सपक्ष से व्याप्त न होकर विपक्ष से व्याप्त है । २. पक्ष विपक्षैकदेशवृत्ति : 'शब्दः आकाशविशेषगुणः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्' । शब्द आकाश का विशेषगुण है, प्रयत्नानन्तरीयक होने से । 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' हेतु की पक्षैकदेश प्रथम शब्द में सत्ता हैं तथा शब्दजन्य अन्य शब्दों में असत्ता है । इसी प्रकार आकाशविशेषगुणत्व के अभाव वाले विपक्ष घटाद में हेतु के अस्तित्व तथा आत्मादिरूप विपक्ष में अनस्तित्व के कारण यह हेतु पक्षविपक्षैकदेशवृत्ति विरुद्ध हेत्वाभास है । ३. पक्षव्यापक विपक्षैकदेशवृत्ति : 'शब्दः आकाशविशेषगुणः बाह्येन्द्रियग्राह्यत्वात् । अर्थात शब्द आकाश का विशेष गुण है, बाहूयन्द्रय द्वारा ग्राह्य होने से । सभी शब्दों के श्रोरसह बाहूयेन्द्रियप्राय होने से यह हेतु पक्ष व्यापक है तथा घटादि विपक्ष में बायेन्द्रियग्राह्यत्व होने से तथा सुखादि विपक्ष में उसके अभाव के करण हेतु विक देवृत्ति है । ४. विपक्ष व्यापक तथा पक्षैकदेशवृत्ति : 'शब्दः आकाशविशेषगुणः अपदात्मक शब्द आकाश का विशेष गुण है. अपदात्मक होने से । शब्द दो प्रकार का होता है - पदात्मक और अपदात्मक । मेय्र्यादि शब्दों में अपदात्मकत्व हेतु की सत्ता है तथा वर्णात्मक शब्दों में अपदा त्मकत्व हेतु की सत्ता नहीं । अतः यह पक्षैकदेशवृत्ति है तथा आकाशविशेषगुणत्व. साध्याभाव वाले सभी विपक्षों में अपदात्मकत्व हेतु कीं सत्ता होने से यह विपक्ष व्यापक है । भासर्वज्ञ ने इन आठ विरुद्धभेदों का निरूपण करने के पश्चात् पूर्वपक्ष सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है । जो पसव्यापक चार हेतु हैं, उन्हें ही वास्तव में विरुद्ध के भेद मानना चाहिये । पक्ष के एकदेश में रहने वालों को असिद्ध ( भागा सिद्ध) हेत्वाभास का भेद मानना उचित है, क्योंकि पक्ष में रहने वाले हेतु की तीन विधाएं होती हैं - हेतु ( सदूघेतु), विरुद्ध तथा अनैकान्तिक । किन्तु जो पक्षै कदेश में रहता है, वह सकलपक्षवृत्ति न होने से विरुद्ध हेत्वाभास नहीं हो सकता । 1 1. न्यायभूषण, पृ. ३१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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