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न्यायसार
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परमाणु भी योगिजनों की बाहूयेन्द्रिय से ग्राह्य हैं । 'बाह्येन्द्रियग्राह्यत्व' हेतु की सपक्ष परमाणुओं में सत्ता होने से विरुद्धत्व की निवृत्ति हो जायेगी, अतः इस विरुद्धत्व की उपपत्ति के लिये हेतु के पूर्व 'अस्मदादि संयोजित है । 'अस्मदादि - बाह्येन्द्रियग्राह्म नित्य सामान्य में भी हैं, अतः 'सामान्यक्त्वे सति' पद दिया गया है । सामान्य में सामान्य मानने पर अनवस्था है । अतः सामान्य में सामान्य के न रहने से सामान्य सामन्यवान् नहीं है । अहर्थि में कृत्य ( ण्यत्) प्रत्यय मानने से ग्राह्यत्व पद से ग्रहण योग्यत्व अभीष्ट है । 'ग्रहणयोग्यत्व' (अस्मदा दिवायेन्द्रियग्रहगयोग्यता) सभा शब्दों में होने से हेतु की पक्ष व्यापक्ता निःसंदिग्ध है ।" ३. पक्षविपक्षैकदेशवृत्ति :
'शब्दो नित्यः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्' । 'प्रयत्नानन्तरीयक्त्व' का अर्थ है - प्रसाध्यत्व | पक्षीकृत सभी शब्दों में आद्य शब्द में 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' है । द्वितीय, तृतीय आदि शब्दों में शब्दजन्यत्व के कारण 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' नहीं है । 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' का विपक्ष घटादि में सद्भाव है, परन्तु वनस्पत्यादि में उ की असत्ता है, अतः पक्ष तथा विपक्ष दोनों के एकदेश में रहने वाले विरुद्ध हेत्वाभास का यह उदाहरण है । वनस्पत्यादि में भी यद्यपि ईश्वरप्रयत्नसाध्यता है, तथापि प्रयत्नसाध्यत्व पर से तीव्रतामन्दतादिधर्मयुक्त प्रयत्नसाध्यता अभिप्रेत है और ईश्वरप्रयत्न के नित्य होने से उनमें तीव्रतामन्दनादिधर्मयुक्त प्रयत्नसाध्यता नहीं है । ४. पकदेशवृत्ति विपक्षव्यापक :
- पृथिवी नित्या, कृतकत्वात्' । परमाणु तथा कार्य भेद से पृथिवी दो प्रकार की है, जैसाकि प्रशस्तपाद ने कहा है- 'सा द्विधा नित्या चानित्या च । परमाणु•लक्ष गाना कार्यलक्षणावनेित्या' 15 परमाणु पृथिवी में कार्यत्व नहीं है और कार्यरूपा पृथिवी में है, अतः हेतु 'कृतकत्व' पक्षैकदेशवृत्ति है । विपक्षभूत समस्त अनित्यों में कृतकत्र की सत्ता है, अतः सर्वविपक्ष व्यापक है ।
इन चारों भेदों में नित्य आत्मादि समक्ष के होने पर भी हेतु की अविद्यमानता स्पष्ट है ।
सपक्ष के अभाव के कारण चार भेद
१. पक्ष विपक्षव्यापक :
- 'शब्दः आकाशविशेषणगुणः प्रमेयत्वात्' । यहां 'आकाशविशेषगुणत्व' साध्य है, जो शब्द के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी नहीं, क्योंकि आकाशविशेषगुण शब्द 1. न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ. १२०
2. अर्हत्य कृत्याभिधानात् ग्रहणयोग्यतामात्रं ग्राह्यत्वमुक्तम् तेनास्यापि पक्षव्यापकत्वम् ।
- न्यायभूषण, पृ. ३१४
3. प्रशस्तपादमाध्य, पृ १७.
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