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________________ ११० न्यायसार भासर्वज्ञ का कथन है कि यह दोष उचित नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार तुला सुवर्णादि के इयत्ताज्ञान (इयत्तावधारण) का सोधन होने से प्रमाण तथा तुलान्तरपरिच्छिन्न द्रव्य द्वारा या प्रत्यक्षतः स्वरूप से ज्ञायमान होने के कारण प्रमेय कहलाता है, उसी प्रकार पक्षक देशवृत्ति हेत्वाभास असिद्धलक्षणोक्रान्त होने से असिद्ध तथा विरुद्ध और अनकान्तिक आदि के लक्षण से युक्त होने से विरुद्ध यो अनैकान्तिक भी कहलाता है। अतः एकान्तः भागासिद्ध या विरुद्ध हो, ऐसा निया नहीं', पक्षवृत्ति हेतु सद्धेतु, विरुद्ध या अनेकान्तिक हो, यह नियम नह।, क्योंकि कालात्यया. पदिष्ट (बाधित) तथा प्रकरणसन् (सत्प्रतिपक्ष) में भी हेतु की पक्ष त्तिता है । प्रथम चार विरुद्धभेद अन्वयव्यतिरेकी हेतु को दृष्टि में रहते हुए किये हैं, जिनमें सपक्ष को सत्ता होती है। द्वितीय चार भेद व्यतिरेको को ध्यान में रख कर किये हैं, जिनमें सपक्ष की सत्ता नहीं रहती । जेनताकिक प्रभाचन्द्र और हेमचन्द्र ने भासर्वज्ञसम्मत इन आठ विरुद्ध भेदों का सकलन करते हुए स्वसम्मत विरुद्ध में अन्तर्भाव किया है। अनैकान्तिक प्रशस्तपाद ने सन्दिग्ध हे वाभास का लक्ष ग किया है-'यस्तु सन्ननुमेये तत्समोनासम्रानजातीययोः साधारणः स सन्देह जनकत्वात् सन्दिग्धः। जो हेतु पक्षवृत्ति होता हुआ सपक्ष तथा विपक्ष दोनों में रहना है अर्थात् साध्यवान् तथा साध्याभाववान् दोनों में रहता है, वह निश्चित रूप से साध्य का साधक न होकर सन्देहजनक होने से सन्दिग्ध कह राता है। नैयायिकों के अनैकान्तिक का यही स्वरूप है, संदिग्ध और अनेकान्तिक में संज्ञाभेदमात्र है । बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग ने अनेकान्तिक हेत्वाभास को स्वीकार करते हुए उसको ६ विधाओं का सोदाहरण उल्लेख किया है। उद्योतकराचार्य ने अनेकान्तिक हत्वाभास के सूत्राकारकृत 'अनेकान्तिकः सव्य. भिचारः लक्षग को पर्यायलक्षण बतलाने के पश्चात् प्रशस्तपादकृत लक्षण को भी स्वीकार किया है-'तेषाम् , अनैकान्तिकः सव्यभिचारः । एकस्मिन्नन्ते नियतः ऐकान्तिकः, 1. न्यायभूषण, पृ. ३१४ 2. Sanghvi, Sukhlal, -Advanced Studies in Indian Logic and Metaphysics, P. 102 3. ये चाष्टौ विरुद्धभेदाः परैरिष्टास्तेप्थेतल्लक्षणलक्षितत्वाविशेषतोऽत्रैवान्तर्भवतीत्युदाहियन्ते । प्रमे पक पलमानण्ड, पृ. ६३६ 4. अनेन ये रिन्ये विद्वा उमाह मस्तेऽपि सङ्गृहीता: । --प्रमाणमीमांसास्वोषज्ञवृत्ति, २२० 5. प्रशस्त पादभाष्य, पृ. १९१-१९२ 6. न्याय प्रवेश, भाग १, पृ. ३ 7. न्यायसूत्र, २१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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