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अनुमान प्रमाण
१११ विपर्ययादनकान्तिकः। कः पुनरयं व्यभिचारः ? साध्यतज्जातीयान्यवृत्तित्वम् । यत् खलु साध्यतज्जातीयवृत्तित्वे सति अन्यत्र वर्तते तद् व्यभिचारि । तवृत्तित्वं व्यभिचारः''। अर्थात् जो हेतु साध्य और तज्जातीयपक्ष और सपक्ष में रहने के साथ-साथ अन्यत्र विपक्ष में भी रहता हो, उसे सव्यभिचार हेत्वाभास तथा तद्-(विपक्ष) वृत्तित्व को को व्यभिचार कहते हैं ।
द्योतकराचार
राचाये का अनुसरण करते हुए आचार्य भासर्वज्ञ ने भी अनेकान्तिक का 'पक्षसपक्षविपक्षवृत्तिरनैकान्तिकः' यह लक्षण किया है। उन्होंने सूत्रकारकृत लक्षण को 'बुद्धिरूपलब्धिः ' इस बुद्धि लक्षण की तरह पर्याय माना है । अर्थात् जिस तरह बुद्धिरुपलब्धि......'इस बुद्धिलक्षण में बुद्धि के पर्यायवाची उपलब्धि शब्द को उपादान कर दिया है, वैसे ही 'अनैकान्तिकः सव्यभिचारः' इस अनैकान्तिकलक्षण में भी अनेकान्तिक का स्वरूप न बतलाकर केवल उसके पर्यायवाची सव्यभिचार पद का उपादान कर दिया है। वस्तुतः सव्यभिचार' शब्द साध्य. व्यभिचारी अर्थात् साध्याभाव में रहने वाला हेतु अनेकान्तिक है, क्योंकि हेतु एकान्ततः साध्य के साथ रहना चाहिये न कि साध्याभाव के साथ, इस प्रकार हेतु की साध्य के साथ ऐकान्तिकता का अभाव बतलाता हुआ अनेकान्तिक के स्वरूप को स्पष्ट कर देता है, अतः यह केवल पर्यायलक्षण नहीं, अपितु स्वरूपलक्षण है । उदयनाचार्य ने किरणावली भोसर्वज्ञोक्त रक्षण को आलोचना की है।
यद्यपि अनैकान्तिक शब्द के द्वारा केवल साधारण हेतु का लाभ होता है, नव्यनैयायिक सम्मत समस्त अनैकान्तिकपरिवार का नहीं । क्योंकि 'एकस्मिन् अन्ते भवः ऐकान्तिकः' इस व्युत्पत्ति से ऐकान्तिक शब्द साध्य की भाव तथा अभाव दोनों कोटियों में से हेतु की एक कोटिवृत्तिता बतला रहा है। अर्थात् साध्य की दो कोठियां मानी जाती हैं-भाव कोटि और अभाव कोटि । साध्य की भाव कोटि के साथ निश्चित रूप से रहने वाला सदुधेतु और साध्य को अभाव कोटि के साथ निश्चित. रूप से रहने वाला हेतु विरुद्ध होता है-इन दोनों को ऐकान्तिक कहा जाता है। जो ऐकान्तिक न हो अर्थात् भाव कोटि तथा अभाव कोटि दोनों में रहता हो, उसे अनेकान्तिक कहा जाता हैं। साधारण हेतु भाव-अभाव उभय कोटि में अनुस्यूत होता है, अतः उसे अनैकान्तिक कह सकते हैं । किन्तु असाधारण और अनुपसंहारी को अनेकान्तिक पद से कहना संभव नहीं । तथापि न्यायपरम्परा में अनेकान्तिक से तीनों का ग्रहण किया गया है, जैसाकि तात्पर्यपरिशुद्धि के 'एतेन सोधारणा साधा रणोनुपसंहार्याः संग्रहीता इति स्फटम' इस वचन से स्पष्ट है। हेतु का भाव तथा
1. न्यायसूत्र, १२१५ 2. न्यायसार, पृ. ७ 3. न्यायभूषण, पृ. ३०९ 4. न्यायस्त्र १११५ 5. तात्पर्यपरिशुद्धि, १।२१५ 6. तात्पर्यपरिशुद्धि, १२
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