________________
न्यायसार
इसका समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि जिस प्रकार हष्टान्त प्रमाण के अन्तर्भूत है, फिर भी दृष्टान्ताभासों से उसका भेदज्ञापन करने के लिये सूत्रकार ने उसका पृथक् उल्लेख किया है तथा हेत्वाभासों के निग्रहस्थानान्तर्गत होने पर हेत्वाभासों के स्वरूपविशेषबोधन के लिये उनका पृथक् अभिधान किया है. उसी प्रकार उपमान के शब्दान्तभूत होने पर भी शब्द के प्रामाण्यसामर्थन के लिये उसका पृथक अभिधान सत्रकार ने किया है । तात्पर्य यह हैं कि कछ विद्वान शब्द का प्रामाण्य स्वीकार नहीं करते, कयोंकि जहां शब्द प्रमाण का विषय प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाण से ज्ञात है, वहां शब्द उस अर्थ का अनुवादकमात्र है न कि अपूर्वार्थबोधक । अतः अनुवादकत्वेन वहां उसे प्रमाण मानना अनुचत हैं और जहां शब्द का विषय प्रत्यक्ष व अनुमानादि से ज्ञान नहीं है, वहां उन पदार्थ के अज्ञान होने से उसके साथ शब्द का संकेतज्ञान नहीं हो सकता और अज्ञात संकेत अर्थ का शब्दबोध नहीं करा सकता । पद द्वारा पदार्थ को ज्ञान मानना अन्योन्याश्रय दोष के कारण मंभव नहीं और वाक्यार्थ पदार्थो का अन्वयमात्र होने से उसे भी पदार्थ का बोधक नहीं माना जा सकता । अतः अप्रसिद्ध अर्थ के साथ शब्द का संकेतग्रहण संभव न होने से संकेतज्ञान द्वारा अर्थबोधक शब्द का प्रमाण नही माना जा सकता इस शब्दाप्रामाण्य का निराकरण करने के लिये उपमान का पृथक् उपादान किया है । अर्थात् जिस नागरेक ने गवय पण्ड को नही देखा है, अत एव जिसको गवय पदार्थ का ज्ञान नहीं है, उस व्यक्ति को भी 'गोसदृशो गवयः' इत्याकारक गोसादृश्यरूप उपमान के द्वारा अज्ञात पदार्थ गवव प्राणी के साथ गवयशब्द का ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार प्रत्यक्षादि द्वारा अज्ञात होने से अप्रसिद्ध पदार्थ का भी शब्द के साथ सम्बन्धज्ञान उपपन्न हो जाता है और सम्बन्धज्ञान द्वारा उस पदार्थ का बोधक होने से शब्द का प्रामाण्य अक्षत है।
शब्दप्रामाण्यसमर्थनार्थ उपमान का पृथक् उल्लेख करने पर भी यदि वह पृथक प्रमाण नहीं है, तो उसके लक्षण की क्या आवश्यकता है ? किन्तु सूत्रकारने 'प्रासद्धसाधोत् साध्यसाधनमुपमानम इस रूप से पृथक् लक्षण बतलाया है। अतः उसका पृथक् प्रामाण्य सूत्रकार को स्वीकृत है, यह शंका भी निराधार है, क्योंकि लक्षणनिर्देश बिना उसको सप्रयोजनता व अन्य प्रमाणों में अन्तर्भाव का ज्ञान नहीं हो सकता, एतदर्थ उसका पृथक् प्रमाण न होते हुए भो लक्षण किया गया है । सूत्रकार ने अन्य प्रमाणों की तरह उपमान प्रमाण की परीक्षा की है यह तर्क भी उपमान को पृथक् प्रमाण सिद्ध करने में असमर्थ है, क्यों क परीक्षासूत्रों द्वारा उसमें प्रमाणता सिद्ध की गई है। याद परीक्षा न की जाती, तो उपमान में प्रमाणता सिद्ध नहीं होती और उसके अभाव में अन्य प्रमाण में उसका अन्तर्भाव कैसे बतलाया जा सकता है।
1. न्यायभूषण, पृ. १२२, ४२३, ४९१ 2. वही, पृ. ४२४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org