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________________ अनुमान प्रमाणं है । सहचारज्ञान का विरोधी जैसे हेतु में साधारणताज्ञान होता है, वैसे ही असाधारणताज्ञान भी । जो हेतु केवल पक्ष में रहता है, उसको अन्य मैं सहचारग्रह संभव नहीं । सहचारग्रह का अध्यवसाय या निश्चय न होने के कारण उसे अनध्यवसाय कहा जाता है । वार्तिककार उद्योतकर ने इसे अनेकान्तिक हेत्वाभास का असाधारण नामक भेद माना है ।' भासर्वज्ञ ने 'न्यायभूषण' में उद्योतकरमत को उपन्यस्त कर उसका खण्डन किया है। उदद्योतकर का कथन है कि जिस प्रकार हेतु की पक्ष-विपक्ष दोनों अन्तो (कोटियों) में वृत्ति व्यभिचार है, उसी प्रकार दोनों अन्तों से उसकी व्यावृत्ति भी व्यभिचार है। जैसे दोनों अन्तों (कोटियों) में हेतु की वृत्तिता के कारण साधारण अनकान्तिक होता है, उसी प्रकार दोनों अन्तों (कोटियों) में हेतु का वृत्त्यभावरूप व्यभिचार होने पर असाधारण अनैकान्तिक होता है। अतः असाधारण का भी अनेकान्तिक में अन्तर्भाव हो जाने से पृथक् अनध्यवसित हेत्वाभास मानने की आवश्यकता नहीं है। उपर्युक्त उद्योतकरपक्ष के प्रति असहमति व्यक्त करते हुए भासर्वज्ञ कहते हैं कि उपयुक्त रीति से असाधारण का अनैकान्तिक में अन्तर्भाव मानने पर भी विपक्ष के अभाव वाले 'सर्व कार्य निस्यजन्मत्वात, सर्वमनित्यं प्रमेयत्वात्' इत्यादि अनुपसंहारी का अनैकान्तिक में अन्तर्भाव नहीं हो सकेगा । अतः उसे पृथक हेत्वाभास मानना ही होगा ! असाधारण और अनुपसंहारी का प्रकरणसम हेत्वाभास में भी अन्तर्भाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि उनमें प्रकरणसम के लक्षण का समन्वय नहीं है । उसके लक्षण से रहित असाधारणादि का उसमें अन्तर्भाव मानने पर सभी के प्रकरणसम में अन्तर्भाव की अतिप्रसक्ति हो जायेगी । अतः भासर्वज्ञ का मत है कि 'सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमकालातीताः हेत्वाभासाः यह न्यायसूत्र हेत्वाभासों की पंचत्व संख्या के अवधारण के लिये नहीं, अपितु निदर्शन के लिये है। जिस प्रकार ये पांच हेत्वाभास है, उसी प्रकार हेतुलक्षण रहित तथा हेतु की तरह प्रतीयमान अन्य भो हेतु हेत्वाभास हो सकता है। 1. अथापीदं स्यादनकान्तिकलक्षणेन न सर्वोऽनै कान्तिको व्याप्यते यथा असाधारण इति । न, अनेनैव संग्रहात् । कथमिति ? व्यावृत्तिद्वारेणाभिधीयमानोऽयमुभयान्तव्यावृत्तोरनकान्तिक इति । --न्यायवार्तिक, ११५ 2. साध्यव्यभिचारेऽस्यान्तर्भाव इत्ये के ।......तत्रान्तर्भावे ह्यति प्रसंगः स्यादिति । ----न्याय. भू. पृ. ३०९ 3. एतेन साधारणा साधारणानुपसंहार्याः संगृहीता इति स्फुटम् । -- तात्पर्यपरिशुद्धि, ११२.५ 4. न्यायसूत्र, १.२.४. 5. न्यायभूषण, पृ. ३०९, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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