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________________ ११६ न्यायसार यद्यपि स तु पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षासत्त्व, अबाधित विषयत्व व असत्प्रति पक्षत्व इन पांच रूपों या धर्मो से युक्त होता है। इन पांच रूपों में से प्रत्येक रूप के अभाव से पांच हेत्वाभास होते हैं। जैसे, पक्ष सत्त्व धर्म से रहित असिद्ध, सपक्षमत्त्वधर्म से रहित विरुद्ध, विपक्षासत्व धर्म से रहित अनैकान्तिक, अबाधितविषयत्व धर्म से रहित कालात्ययापदिष्ट तथा असत्प्रतिपक्षव धर्म से रहित प्रकरण-सम या सत्प्रतिपक्ष । हेतु के इन पांच रूपों का जो क्रम है. उसी क्रम से उन धर्मो से रहित हेत्वाभासों का क्रम अपनाया जाता है, तो असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक कालात्ययापदिष्ट व प्रकरणसम यही हेत्वाभासों का क्रम सिद्ध होता है । अतः इस कारण से हेत्वाभासों का भासर्वज्ञीय क्रम है, यह कहना अधिक उपयुक्त है, तथापि भासर्वज्ञ ने हेत्वाभासों का सूत्रकारक्रम से विपरीत क्रम अपनाने में इस कारण का कथन न कर भिन्न कारण का जो उल्लेख किया है, उसमें यही कारण है कि वह अनध्पवसित हेत्वाभास को पृथक् मानकर छः हेत्वाभास मानता है और ६ हेत्वाभास मानने पर पंचविध हेतु-स्वरूपों के क्रम के अनुसार तत्तत् हेतुस्वरूपरहित हेत्वाभासों का भी कम है, यह कथन उपपन्न नहीं होता । भासर्वज्ञ के अतिरिक्त अन्य सभी नैयायिकों ने अनध्यवसितकी स्वतन्त्र हेत्वा भासता का खण्डन किया है और इसका अनैकान्तिक में समावेश किया है। न्याय. वैशेषिक दर्शन के प्रायः सभी प्रकरणप्रन्थकारों ने इसे अनेकान्तिक का असाधारण नामक भेद माना है । भासर्वज्ञ ने साधारण अनेकान्तिक को अनैकान्तिक माना है और असाधारण तथा अनुपसंहार्य का अनध्यरसित में समावेश किया है । श्री वी. पी. वैद्य का कहना है कि हेत्वाभासों में यह कोई महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं है । अनध्यवसित हेत्वाभास के भासर्वज्ञकृत ६ भेदों की समीक्षा करते हुए जयसिंह सूरि ने कहा है कि वह अविद्यमान सपक्ष विपक्षता, विद्यमानपक्षविपक्षता तथा अविद्यमानविपक्षविद्यमानसपक्षता भेद से मुख्यतया तीन प्रकार का है। किन्तु वे तीनों भेद पक्ष के समस्त देश में वृत्तिता तथा एकदेश में वृत्तिता भेद से दो प्रकार के हैं, अतः अनध्यवसित हेत्वाभास ६ प्रकार का हो जाता है ।। 1. लिङ्गम् पञ्चलक्षणम् । कानि पुन: पञ्चलक्षगानि, पक्षधर्मत्वं, सपक्षधर्मत्वं, विपक्षाद् व्यावृत्तिर. बाधितविषयत्वमसत्प्रतिप्रक्षत्वं चेति, एतेः पञ्चभिलक्षणैरुपपन्न लिङ्गमनुमापकं भवति । एतेषामेव लक्षणानामेकैकापागत् पच हेत्वाभासाः । -न्यायमंजरी, पूर्वभाग, पृ. १०२. 2. As it is, it is not a very important addition in the हेत्वाभासाः । -Nyayasara, Notes. p. 30. 3. अनध्यवसितस्त्रेधा अविद्यमानसपक्षविपक्षतया विद्यमानसपक्षविपक्षतया अविद्यमानविपक्षविद्यमानसपक्षतया च । त्रिविधोऽपि पक्षसर्वेकदेशव्याप्तिभ्यां पुनधा । एवं भेदाः षटू भवन्ति । .-न्यायतात्पर्यदीपिका, पृ १२६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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