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न्यायसार
उस अनुपपद्यमान वस्तु का उपपादन करना अर्थापत्ति का स्वरूप है। यदि आकाशादि नित्य पदार्थो के साथ अस्पर्शवत्व साधर्म्य से शब्द में नित्यत्वसिद्धि के बिना शब्द के अनित्यत्र की उपपत्ति न होती तो अनुपपद्यमान शब्दानित्यत्व से उसके उपपादक शब्दनित्यस्व का सिद्धि हो जाती, किन्तु उसके बिना भो कृतकत्व हेतु से शब्द में अनित्यत्व उपपन्न है । अतः अर्थापत्ति द्वारा शब्द में नित्यत्वरूप प्रतिपक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती । तथा शब्द में घटादि पदार्थों के साथ कार्यत्वरूप साधर्म्य से आकाशादि नित्य द्रव्यों के साथ अस्पशंवरूप साधर्म्य की भी अर्थात् प्राप्तिरूप जो वाक्यार्थ-विपर्ययरूप अर्थापत्ति है, वह अव्यभिचारिणी नहीं, अपितु व्यभिचारिणी है, क्योंकि वाक्यार्थविपर्ययरूप अर्थांपत्ति मानने पर 'धन शिलाद्रव्य का पतन होता है' यह कहने पर द्रवद्रव्यों का पतन नहीं होता, इस अर्थ की अर्थात् आपत्ति होती है और यह अर्थ व्यभिचारी है, क्योंकि जलरूप द्रवद्रव्य का भी पतन अनुभवसिद्ध है । अतः ऐसो व्यभिचारिणी अर्थापत्ति को लेकर अनिष्टापादन संभव नहीं है। इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने कहा है-'अनेकान्तिकत्वाच्चार्थापत्तेः ।।
(१८) अविशेषसम कुछ द्रव्यों में एक धर्म के होने से उनमें समानता मानने पर सत्त्वेन सभी पदार्थो की समानतारूप अनिष्ट का आपादन अविशेषसम जाति है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है-'एकधर्मोपपत्तरविशेषे सर्वाविशेषप्रसंगात्सद्भावोपपत्तरविशेषसमः' । जैसे, घट और शब्द में कार्यत्व नामक एक धर्म के होने से दोनों में अनित्यत्वेन समानता मानने पर सभी पदार्थो में सत्त्वधर्म के सद्भाव से सभी में अविशेषता का आपादन अविशेषसम है।
इसका समाधान निम्न प्रकार से किया गया है-सत्तारूप एक धर्म की उपपत्ति से समस्त पदार्थो में सर्वथा साम्य सिद्ध करने पर प्रत्यक्षादि से विरोध उपस्थित होता है। यदि किसी रूप से साम्य सिद्ध किया जाता है, तो प्रमेयत्वादि धर्म से सभी पदार्थों में साम्य सिद्ध होने से उसका साधन सिद्धसाधन है । अतः यह सिद्ध-साधन है। यदि नित्यत्व अथवा अनित्यत्व से सभी के साम्य का आपादन किया जाय, तो वह अनुमानादि प्रमाण से विरुद्ध है। जैसा कि सत्रकार ने कहा है - 'क्वाचत्तधर्मोपपत्ते क्वचिच्चानुपपत्तेः प्रतिषेधाभावः' । अर्थात् कहीं घटादि में अ नेत्यत्व धर्म की उपपत्ति है क्योंकि कायस्वरूप प्रमाण से सिद्ध है और कहीं आकाशादि में अनित्यत्व धर्म का संभव नहीं, क्यों क आकाशादि में प्रमाण से अनित्यत्व सिद्ध नहीं हैं। अतः सभी पदार्थों में आंवशेषतारूप अनिष्ट का आपादन प्रमाणविरुद्ध होने से सम्भव नही । अथवा घटादि तथा शब्द में अनित्यत्व के
1. न्यायसूत्र, ५.१।२२ 2. वही, ५/१॥२३ 3. वही, ५/११२४
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