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________________ १७१ कथानिरूपण तथा छल... साधक कार्यत्व धर्म की कारणत्वेन उपपत्ति संभव है, अतः उनमें समत्व का आपादन किया जा सकता है, किन्तु सभी पदार्थों में अविशेषता के आपादक किसी धर्म की कारणत्वेन उपपत्ति संभव नहीं, अतः उनमें समतापादनरूप अनिष्ट का आपादन संभव नहीं । सभी पदार्थो में समतापादक सत्तारूप हेतु भी संभव नहीं, क्योंकि अनवस्थादि दोषों के कारण सामान्यादि में सत्ता की स्थिति संभव नहीं है । (१९) उपपत्तिसम अनित्यत्व व नित्यत्व दोनों के साधक कारणों की उपपत्ति द्वारा साध्य का प्रतिषेध या साध्याभावरूप अनिष्ट का आपादन उपपत्तिसम जाति है, जैसाकि सत्रकार ने कहा है-'उभयकारणोपपत्तेरुपपत्तिसमः' 11 जैसे, अनित्यत्व के कारण कार्यत्व की उपपत्ति होने से शब्द में अनित्यत्व मानने पर नित्यत्व के कारण अस्पर्शत्व धर्म की भी उपपत्ति होने से उसमें साध्य अनित्यत्व का प्रतिषेध करना या साध्याभावरूप नित्यत्व को आपादन उपपत्तिसम है । वस्तुतः इसका साधर्म्यसम और वैधर्म्यसम से नाममात्र का भेद है । इसलिये भासर्वज्ञ ने इस जाति-भेद का न्यायसार में निरूपण नहीं किया है। उपपत्तिसमदोष का समाधान सूत्रकार ने 'उपपत्तिकारणाभ्यनुज्ञानादप्रतिषेधः' इस सूत्र द्वारा किया है। अर्थात् शब्द में अनित्यत्व के कारण कार्यत्व की उपपत्ति से अनित्यत्व अनुज्ञात है और अनुज्ञात का प्रतिषध उचित नहीं । अतः अस्पर्शवत्व के द्वारा शब्द में अनित्यत्व का प्रतिषेध संभव नहीं। तथा अस्पर्शवत्व के आकाशादि में व्यभिचारी होने से अस्पशवत्व का कारणत्व ही स्वीकृत नहीं है, क्योंकि अव्यभिचारी हेतु हो हेतु होता है, व्यभिचारी नहों । अतः अस्पर्शवत्व के नित्यत्व का साधक न होने से उसके द्वारा शब्द में नित्यत्वापादन या अनित्यत्व का निषेध नहीं किया जा सकता। (२०) उपलब्धिसम निर्दिष्ट कारण के न होने पर भी कार्यत्वरूप साध्य की बुद्धयादि में उपलब्धि होती है, अतः इस उपलब्धि के द्वारा वह कारण साध्य का साधक नहीं, यह आनष्टापादन उपलब्धिसम है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है-'निर्दिष्ट कारणाभावेऽप्युपलम्भा दुपलब्धिसमः । जैसे, पृथिव्यादि में कार्यत्व का साधक सावयवत्वरूप हेतु कारण. त्वेन निर्दिष्ट है, किन्तु बुद्धयादि में सावयवत्व के अभाव में भी कार्यत्व की उपलब्धि देखी जाती है। अतः यह सावयवत्व हेतु कार्यत्व का साधक नहीं है, यह अनिष्टापादन उपलब्धिसम कहलाता है। 1. न्यायसूत्र, ५१।२४ 2. न्यायभूषण, पृ. ३५२ 3. न्यायसूत्र, ५/१।२६ 4. न्यायसूत्र, ५।१।२७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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