________________
१७२
न्यायसार ___ इसका उद्धार भासर्वज्ञ ने 'सपक्षकदेशस्यापि धूमादेर्गमकत्वदर्शनादप्रतिषेधः, इस वचन के द्वारा बतलाया है । अर्थात् सर्वसपक्षवृत्ति हेतु ही साध्य का साधक हो, यह नियम नहीं । तप्त अयोगोलका देरूप सपक्षों में न रहने के कारण महानसादिरूप सपक्षकदेश में रहने वाले धूमादि हेतुओं में भी पर्वतादि में वहनिरूप साध्य की साधकता दृष्ट है । अतः प्रकृत में भी सावयवत्व हेतु कार्य बुद्वथादि में न रहने के करण सपक्षकदेशवृत्ति है. फिर भी प्रथिव्यादि में कार्यत्र का साध सकता है, अतः उसमें अप्रयोजकत्व दोष नहीं है । जिस प्रकार स्थानरूप निमित्त से मंच की मंचस्थ पुरुषों में लक्षणा है, उसी प्रकार प्रकृत सूत्र में सपक्षक देश शब्द लक्षणया अथवा 'सपक्षस्य एकदेशोऽस्त्यस्य' इस बहुव्रीहि समास से सपक्षकदेशवृत्ति हेतु का बोधक है। बुद्धयादि में सावयवत्व के द्वारा कार्यत्व की सिद्धि यहाँ अभीष्ट नहीं है । इस प्रकार बुद्धयादि के पक्षत्वेन अभीष्ट न होने के कारण बुद्धधादिरूप पक्ष में सावयवत्व हेतु के न रहने से भागासिद्धत्व की प्रसक्ति भी नहीं कही जा सकती। बद्धयादि में सावयवत्व हेतु द्वारा कार्यत्व की सिद्धि न होने पर भी 'बुद्धयादिकं कार्यम् अनुपलब्धिकारणेष्वसत्सु प्रागूज़ चानुपलब्धेः' इस अनुमानान्तर से कार्यत्वसिद्धि हो जाती है, अतः उनमें कार्यत्व की अनुपपत्ति नहीं है। इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने कहा है-'कारणान्तरादपि तद्धर्मोपपत्तेरप्रतिषेधः' अर्थात् जिस प्रकार तप्त अयोगोलकादि में धूम के न होने पर भी स्पार्शन प्रत्यक्ष अथवा दाहकत्वादिरूप अनुमानान्तर के द्वारा अग्नि की सिद्धि है, अतः निधूम अग्नि की असिद्धि नहीं मानी जा सकती, उसी प्रकार बुद्धयादि में अनुमानान्तर के द्वारा कार्यत्वसिद्धि हो जाने से उन्हें अकार्य नहीं माना जा सकता ।
(२१) अनुपलब्धिसम बुद्धादिरूप कार्य को अनुपलब्धि का उपलभ न होने से अनुपलब्धि का अभाव सिद्ध होने के कारण तांद्वपरोत बुद्धथादि की उपलब्धि द्वारा पूर्वकाल या उत्तरकाल में बुध्यादि की सत्तारूप अनिष्ट का आपादन अनुपलब्धसम जाति है। अनुपलब्धि का अनुपलब्धि से इसका आपादन हुआ है, अतः इसे अनुपलब्धिसम संज्ञा दी गई है, जैसाकि सूत्रकार ने कहा है 'तदनुपलब्धेरनुपलम्भादभावसिद्धी तद्विपरोतोपपत्तानुपलब्धिसमः ।' अर्थात् बुद्ध्यादि कार्य की जो अनुपलब्धि है, वह भी उपलब्ध नहीं होती । यदि उपलब्ध हो, तब तो वह उपलब्धि ही हो जायेगी । इसलिये अनुपलाब्ध के अनुपलम्म के कारण अनुपलब्धि के अभाव की सिद्धि होती है और अनुपलब्ध्यभाव की सिद्ध होने पर अनुपलब्धि से विपरीत बुद्ध्यादि की सत्ता का पूर्वकाल व उत्तरकाल में आपादन हो जाता है, यही अनुपलब्धिसम है।
1. न्यायसार, पृ. २१ 2. न्यायभूषण, पृ. ३५३
3. न्यायसूत्र, ५/१/२८ 4. वही, ५।१।२९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org