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कथानिरूपण तथा छल...
१६९ (१७) अर्थापत्तिसम अर्थापत्तिसम का लक्षण सूत्रकार ने 'अर्थापत्तितः प्रतिपक्षसिद्धरापत्तिसमः। इस प्रकार किया है अर्थात् अर्थापात्त के कारण जहाँ प्रतपक्ष अर्थात साश्यरूप धर्म से विपरीत धर्म साध्याभाव का आपादन होता है, उसे अर्थापत्तिसम कहते हैं । जैसे-यदि अनित्य घटादि पदार्थो से कार्यत्वरूप साधर्म्य के कारण शब्द में अनित्यत्व वादी द्वारा सिद्ध किया जा रहा है, वहां अर्थात् प्राप्त नित्य द्रव्य आकाशादि के साथ अस्पर्शवत्वरूप साधम्र्य से शब्द में नित्यत्व का आपादन अर्थापत्तिसम है। इसी प्रकार शब्द में नित्य आकाशादि पदार्थों के साथ कार्यत्वरूप वैधर्म्य के कारण अनित्यत्व की सिद्धि वादी करता है, तब अनित्य पदार्थ घटादि के साथ अस्पर्शवत्वरूप वैधयं के कारण शब्द में अनित्यत्वाभावरूप नित्यत्व की सिद्धि का आपादन भी अर्थापत्तिसम है ।।
आचार्य भासर्वज्ञ ने न्यायसार में इसका उल्लेख नहीं किया है, क्योंकि साधर्म्यम और वैधय॑सम से इसका नाममात्र का भेद है। परन्तु उन्होंने साधर्म्यसम और वैधर्म्यसम से भेद भी बतलाया है । साधर्म्य से वादी द्वारा शब्द में अनित्यत्व सिद्ध करने पर साधर्म्य से ही प्रतिवादी द्वारा प्रतिपक्षसिद्धिरूप अनिष्ट का आपादान साधय॑सम है तथा वैधर्म्य से वादी द्वारा अनित्यत्वरूप पक्ष की सिद्धि करने पर वैधर्म्य से ही प्रतिवादी द्वारा नित्यत्वरूप प्रतिपक्ष का आपादन वैधम्यसम है । परन्तु वादो द्वारा वैधर्म्य से अनित्यत्वपक्ष की सिद्वि प्रस्तुन करने पर साधयं से प्रनिवादी द्वारा प्रतिपक्षसिद्धिरूप अनिष्ट का आपादन अर्थापत्तिसम कहलाता है । जैसे -आकाशादि नित्य पदार्थों के साथ कार्यत्वरूप वैधर्म्य से शब्द में अनित्यत्व सिद्ध करने पर नित्य पदार्थों के साथ अस्पर्शत्वरूप साधर्म्य के कारण शब्द में
आकाशादि की तरह नित्यत्व का आपादन अर्थापत्तिसम है। अर्थापत्तिसम का इस प्रकार स्वरूपभेद होने पर भी न्यायसार में उसका अनभिधान विस्तारभय से ही है, जैसाकि अपरार्क ने कहा है-'तर्हि सम्भवत्येवंविधे भेदे विस्तरभयादनभिधानं संग्रहे' ।
इसका समाधान सत्रकार ने 'अनुक्तस्यार्थापत्तेः पशहानेरुपपत्तिरनुक्तत्वात" इस सूत्र से किया है । अनुक्त नित्यत्वरूप पक्ष की अर्थापत्त द्वारा सिद्धि चाहने वाले के मत में अनुकत्वसाधर्म्य के कारण नित्यत्वरूप पक्ष की हानि भी प्राप्त हो जाती है। अर्थात् जिस प्रकार अनुक्क नित्यत्वपक्ष की मिद्धि अर्थापत्ति से प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार अनुक्त आनेत्यत्व की भी मिद्धि अर्थापत्ति से प्राप्त हो जाती है। दूसरी बात यह है कि जिसके बना जिसकी उपपत्ति नहीं होती, 1. न्यायसूत्र, ५।१।२१ 2. अस्यापि साधर्म्यवधर्म्यसमाभ्यामुक्तिमात्रेण भेदः । -न्यायभूषण, पृ ३५० 3. न्यायमुक्तावली, पूर्वभाग, पृ. २६५ 4. न्यायसूत्र, ५।१।२१ भान्या-२२
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