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________________ १६८ न्यायसार हेतु साधन कैसे हो सकता है ? यदि साध्य और साधन की युगपत् स्थिति मानी जाय, तो दोनों के एककाल में विद्यमान होने से तुल्यता के कारण कौन किसका साधन होगा ? इस प्रकार कालत्रय में हेतु को अहेतु अर्थात साध्य से अविशिष्ट अनिष्टापादन अहेतुसम जाति कहलाती है। इसका समाधान सूत्रकार ने 'न हेतुतः साध्यसिद्धेः' इस सूत्र के द्वारा किया है। कारक या ज्ञापक हेतु के बिना किसी कार्य या ज्ञाप्य साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती । यदि लोकसिद्ध साध्यसाधनभाव का कुतर्कवशात् अपलाप किया जायेगा, तब फिर सभी हेतु अहेतु हो जायेंगे और किसी को कहीं प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति नहीं हो पायेगी । समस्त जगत् अन्धमूक की तरह क्रियाशून्य हो जायेगा। अतः हेतु से ही साध्यसिद्धि माननी होती है। साध्यों के साथ हेतुओं का पूर्वभाव, भाव और सहभाव अनुभव के अनुसार माना जाता हैं। जैसे-कारक हेतु सदा साध्य कार्य से पहिले ही होता है और ज्ञापक हेतु कोई साध्य से पर्वमा होता है। जैसे-ज्ञायमान रूपादि को ज्ञापक चक्षु, सयें आदि हेतु । कोई ज्ञापक हेतु साध्य से पश्चााधी होती है। जैसे-अग्नि, आकाश तथा आत्मा के ज्ञापक हेतु धूम, शब्द व इच्छादि गुण साध्य अग्न्यादि के कार्य होने से पश्चाद्भावी हैं। कोई ज्ञापक हेतु साध्यसहभावी होता है। जैसे-रूपादि स्पर्शादि के ज्ञापक हैं और वे ज्ञाप्य ज्ञापक द्रव्य में साथ उत्पन्न होने से सहभावी हैं । अतः कृतकस्वादि हेतु को त्रैकाल्पासिद्धि न होने से उसके हेतु में साध्यत्वरूप अनिष्टापादन संभव नहीं । तीनों कालों में प्रतिषेध के अनुपपन्न होने से भी अहेतुसम नहीं बन सकता, जैसाकि सूत्र में कहा गया है-'प्रतिषेधानुपपत्तेश्च' । प्रतिषेध प्रतिय से पहिले होता है या पश्चात् या प्रतिषेध्य के साथ अर्थात् एककाल में । यदि पहिले होता है, तब प्रतिषेध्य के अभाव में प्रतिषेध अनुपपन्न होगा । यदि बाद में होता है, तो प्रतिषेध्यकाल में प्रतिषेध के न होने से वह प्रतिषेध्य कैसे कहलायेगा अर्थात् उसे प्रतिषेध्य कहनो अनुपपन्न होगा। यदि प्रतिषेध प्रतिषेध्य काल में रहता है, तब जिस प्रकार समानकालिक गोशंगों में प्रतिषेधप्रतिषेध्यभाव को अनुपपत्ति है उसी प्रकार प्रतिषेध व प्रतिषेध्य के समानकालिक होने से उनमें प्रतिषेध-प्रतिषेध्यभाव की अनुपपत्ति होगी। इस प्रकार काल्यासिद्धि के कारण प्रतिषेध की उपपत्ति नहीं होती और उसकी अनुपपत्ति में हेतु की निर्दोषता सिद्ध है। 1. न्यायसूत्र, ५११९ 2. . ५११२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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