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________________ कथानिरूपण तथा छल... भासर्वज्ञ की मान्यता है कि इस जातिभेद का भी साधर्म्यसम और वैधर्म्यसम नामक जातिभेदों से नाममात्र का भेद है । इस लिये न्यायसार में इसका निरूपण नहीं किया है, परन्तु नाममात्र का भेद बतलाकर भी भासर्वज्ञ ने इसका साधर्म्यसम व वैधय॑सम से स्वल्प भेद का प्रतिपादन किया है । विरुद्धाव्यभिचारी को तरह त्रिरूपसाधर्म्य द्वारा साध्य प्रकरणसम होता है और साधर्म्यमात्र से साध्य का प्रतिषेध साधर्म्यसम है-इस प्रकार दोनों का स्वरूप लक्षण्य भी है। इसी लिये अपरार्क ने कहा है कि आंशिक वैलक्षण्य होने पर भी न्यायसार में इसके अकथन का कारण अभेद नहीं, अपितु विस्तारमय ही है। जब प्रतिवादी के स्तम्भनार्थ ही द्वितीय हेतुप्रयोग होता है, तब विरुद्धाव्यभिचारी हेत्वाभास होता है और जब द्वितीय वादी भी स्वपक्ष के निश्चय का अभिसन्धान कर प्रतिहेतु का प्र प्रयोग करता है, तब प्रकरणसम होता है । इस प्रकार से भी दोनों का भेद अपरार्क ने बतलाया है । इस दोष या उद्धार सत्रकार ने 'प्रतिपक्षात्प्रकरणसिद्धेः प्रतिषेधानुपपत्तिः प्रति पक्षोपपत्तेः' इस सत्र के द्वारा किया है । अर्थात् वादिसम्मत प्रथम साधन से वादिपक्ष की सिद्धि हो जाने पर उस हेतु को निर्दोषता के कारण द्वितीय पक्ष का उत्थान नहीं होता, अतः प्रकरणसम नहीं बन सकता । सत्र में द्वितीय पक्ष की अपेक्षा से प्रथम साधन ही प्रतिपक्ष कहा गया है। अतः प्रतिपक्ष अर्थात प्रथम साधन से प्रथम पक्ष की सिद्धि हो जाने पर उसके प्रतिषेध की उपपत्ति ही नहीं होतो अर्थात द्वितीय पक्ष का उत्थान ही संभव नहीं होता, क्योंकि प्रथम साधन निर्दुष्ट है । अतः शब्दानित्यत्व का साधक कृतकत्व निर्दुष्ट साधन है, उससे शब्द में अनित्यत्व सिद्ध हो जाने पर शब्दनित्यत्व के साधक अमूर्तत्वानुमान का उत्थान हो संभव नहीं है । अत यहां प्रकरण समदोष से अनिष्टापादन संभव नहीं हो सकता। (१६) अहेतुसम हेतु की तीनों कालों में असिद्धि अहेतुसम है, जैसाकि सत्रकार ने कहा है'त्रैकात्यासिद्धेहेंतोरहेतुसमः' । अर्थात् वर्तमान, भूत व भविष्यत् किसी भी काल में हेतु की सत्ता उपपन्न न होने पर अहेतुसम कहलाता है। यदि साध्य से पहिले हेतु की सत्ता मानी जाय. तो उस समय साध्याभाव की दशा में हेतु किसका साधन होगा ? साध्य के बाद साधन की सत्ता मानी जाय, तो साधन से पूर्व साधन के बिना साध्य की उत्पत्ति ही कैसे होगी और साध्य के समकाल में अविद्यमान 1. अस्यापि साधम्यवधम्यसमाभ्यामक्तिमात्रेण भेद: ।-न्यायभूषण, पृ ३४९ 2. न्यायभूषण, पृ. ३४९ 3. न्यायमुक्तावली, प्रथम भाग, पृ. २६३ 4. न्यायसूत्र, ५/१1१७ 5. बही, ५/१/१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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