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________________ १६६ न्यायसारं इसका उद्धार सत्रकार ने 'साधात्संशये न संशयो वैधादुभयथा वा संशयेऽ. त्यन्तसंशयप्रसंगः । नित्यत्वानभ्युपगमाच्च सामान्यस्याप्रतिषेधः1 इस सूत्र द्वारा किया है। किसी साधर्म्य के कारण संशय होने पर वैधयं के कारण सशय की निवृत्ति हो जाती है । साधर्म्य तथा वैधर्म्य दोनों से ही संशय मानने पर अत्यन्त संशय होगा और उसकी निवृत्ति नहीं होगी तथा सामान्य सर्वदा संशय का कारण नहीं होगा अर्थात् विशेष दर्शनकाल में सामान्यदर्शन संशय का कारण नहीं होता। अन्यथा शिरःपाण्यादि-विशेष दर्शन-काल में ऊर्ध्वत्वादि धर्म पुरुष में स्थाणसंशय के कारण हो जाते । तात्पर्य यह है कि सामान्यधर्मदर्शन से संशय तमी तक होता है, जब तक कि विशेषदर्शन न हो । जब स्थाण में पुरुषत्वव्याप्य शिर:पाण्यादि विशेष का दर्शन हो जाता है, उस समय ऊर्धत्वादि-सामान्यसामग्री संशय को जन्म नहीं दे सकती, क्योंकि विशेषादर्शन भी उसको एक सामग्री है। विशेषदर्शन के रहते विशेषादर्शनघटित सम्पूर्ण सामग्री का सद्भाव नहीं हो सकता । प्रवृत्त में कार्यत्वहेतुदर्शन विशेष दर्शन है । अतः उसके सद्भाव में ऐन्द्रियकत्वरूप सामान्यदर्शन' 'शब्दो नित्यो न वा' इस प्रकार के संशय का उत्पादन नहीं कर सकता । न्यायसार मे विस्तार के परिहार के लिये इसका पृथक् अभिधान नहीं किया है। (१४) प्रकरणसम प्रकरणसम का 'उभयसाधाप्रक्रियासिद्धेः प्रकरणसमः' यह सौत्र लक्षण है। सत्र में उभयसाधर्म्य शब्द 'उभयं च तत् साधर्म्यम्' इस व्युत्पत्ति से साधर्म्यद्वय का बोधक है । 'प्रक्रियत इति' इस व्युत्पत्ति से प्रक्रिया शब्द पक्ष और प्रतिपक्ष का बोधक है । अतः साधर्म्यद्वय से या वैधर्म्यद्वय से पक्ष और प्रतिपक्ष की सिद्धि प्रकरणसम जाति है, यह सत्रार्थ है । अनित्य घटादि के साथ कृतकत्व साधर्म्य के कारण पक्ष की अर्थात् वादी के पक्ष शब्दानित्यत्व की सिद्धि होती है और नित्य आकाशादि के साथ अमूर्तत्व साधम्य के कारण प्रतिपक्ष की अर्थात् प्रतिवादी के पक्ष शब्दनित्यत्व की सिद्धि होती है। साधर्म्य का ग्रहण वैधयं का भी उपलक्षण है। अर्थात् जैसे दो साधों से पक्ष प्रतिपक्षसिद्धि प्रकरणसम है, उसी प्रकार उभयवैधर्म्य से भी पक्ष, प्रतिपक्ष की सिद्धि होने पर प्रकरणसम होता है अर्थात एक वैधर्म्य पक्ष की सिद्धि करता है, तो दूसरा वैधयं प्रतिपक्ष की । जैसे, शब्द में पटादि से अनित्यत्व साधर्म्य के कारण अनित्यत्व की सिद्धि है, तो आकाशादि में वर्तमान अमूर्तत्व साधर्म्य के कारण शब्द में नित्यत्वरूप प्रतिवादी के पक्ष की सिद्धि है, अतः यह प्रकरणसम है । 1. न्यायसूत्र, ५/१/१५ 2. न्यायभूषण, पृ. ३४९ 3. न्यायसूत्र, ५।११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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