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कथानिरूपण तथा छल...
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(१३) अनुत्पत्तिसम सूत्रकार ने 'प्रागुत्पत्तेः कारणामावादनुत्पत्तिसमः'1 यह अनुत्पत्तिसम जाति का लक्षण किया है । अर्थात् उत्पत्ति से पूर्व शब्द की अनित्यता का कोई कारण नहीं, अतः वह नित्य है और नित्य की उत्पत्ति नहीं । जैसे, अनुत्पत्ति के द्वारा शब्द में अनित्यत्वरूप साध्य का प्रतिषेध किया जाता है अतः इसे अनुत्पत्तिसम कहा गया है । 'अनित्यः शब्दः कार्यत्वात्' इस अनुमान में कार्यत्व हेतु अनुत्पत्तिसम दोष से ग्रस्त है । तात्पर्य यह है कि कार्य उसी पदार्थ को कहा जाता है, जो किसी के प्रयत्न से निष्पादित हो । जब तक शब्द के उत्पादन का प्रयत्न किसी ने नहीं किया, तब तक शब्द को कार्य नहीं कहा जा सकता । अतः उसमें कार्यत्व हेतु का अभाव है। कार्यत्व न होने से नेत्यत्व नहीं, किन्तु नित्यत्व ही है । जव अपनी उत्पत्ति के पहिले शब्द में नित्यता स्थापित हो जाती हैं, तब उसमें कार्यत्व (उत्पाद्यत्व) ही संभव नहीं। तब कायत्व से शब्द की अनित्यता कैसे सिद्ध हुई ? अतः कार्यत्व हेतु अनुत्पत्तिसम दोष से ग्रस्त है।
इस दोष का उदोर सूत्रकार ने 'तथाभावादुत्पन्नस्य कारणोपपत्तरप्रतिषेधः' इस सत्र द्वारा किया है । अर्थात् किसी वस्तु को नित्य या अनित्य तभी कहा जा सकता है, जबकि उसका स्वरूप सिद्ध हो। रव पुष्प के समान जिसका स्वरूप ही सिद्ध नहीं, उसे नित्य या अनित्य कुछ भी नहीं कह सकते । अतः उत्पत्ति से पहिले शब्दरूप धर्मी की सत्ता न होने से उसमें नित्यत्व धर्म की सत्ता कैसे कही जा सकती है? प्रयत्नपूर्वक उच्चारित शब्द का स्वरूप जब निष्पन्न होता है, तब उसमें अनित्यता का साधक कायव उपपन्न हो जाता है, अतः नित्य शब्द की उत्पत्ति अनुपपन्न होने से हेतु को अनुत्पत्तिसम बतलाना अनुचित है।
(१४) संशयसम संशयसम का लक्षण सत्रकारने सामान्यदृष्टान्तयोरेन्द्रियकत्वे समाने नित्यानित्यसाधात् संशयममः' इस सूत्र द्वारा किया है। अर्थात् ऐन्द्रियकत्व हेतु के नित्य सामान्य और अनित्य घटाटि में समानरूप से रहने के कारण उस हेतु के नित्यत्वानित्यत्वसाधारण होने से शब्द में अनियत्व का सन्देह बना रहता है। यदि संशय का कारण होने पर भी संशय अभीष्ट नहीं. तब फिर निश्चय का कारण होने पर भी निश्चय नहीं होगा । इस प्रकार यहाँ संशय द्वारा अनिष्टापादन संशयसम जाति कहलाती है।
1. न्यायसूत्र, ५।९।१२ 2. वही, ५।१।१३ 3. वही, ५११४
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