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________________ १९० व्यायसार महावाक्यों को प्रत्यज्ञ ज्ञान का जनक माना जाता है, तथापि उक्त स्थलों पर जो व्यवस्था आचार्य मण्डन मित्र तथा उनके अनुयायी वाचस्पति मिश्र आदि ने दी है कि महावाक्यों के श्रवण, मनन, निदिध्यासन से संस्कृत होकर मनरूप आन्तर इन्द्रिय उस प्रत्यक्ष ज्ञान का जनक होता है, शब्द प्रमाण नहीं ! वही व्यवस्था नैयायिकों को भी स्वीकृत है । आगमद्वैविध्य आचार्य भासर्वज्ञ ने 'स द्विविधो दृष्टादृष्टार्थत्वात्' इस न्यायसूत्र का अनुसरण करते हुए आगम प्रमाण के दृष्टार्थ तथा अदृष्टार्थ भेद का निर्देश किया है- 'स द्विष्टाष्टार्थभेदात् । दृष्टार्थ और अदृष्टार्थ के स्वरूप का निर्वचन करते हुए भाष्यकार ने कहा है कि जिस शब्द प्रमाण का अर्थ (विषय) इस लोक में चक्षुरादि इन्द्रियों से प्रत्यक्ष ज्ञात होता है, वह दृष्टार्थक होता हैं । तथा जिसके विषय की परलोक में सिद्धि होती है, वह अनुष्टार्थक शब्दप्रमाण कहलाता है । " वार्तिककार ने दृष्टार्थ और अदृष्टार्थ को प्रवक्ता के पक्ष में घटित किया है । प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण कारणसामग्री और विषय के आधार पर किया गया है । भाष्यकारादि ने शब्द प्रमाण का लक्षण विषय और कारणसामग्री की दृष्टि से किया है, कर्ता की दृष्टि से शब्द का लक्षण पहिले नहीं किया गया था । इसका कारण यही प्रतीत होता है के साधारणतया वेद में पुरुष- ऋतृत्व नहीं माना जाता था । मीमांसकों ने वेदों का अपौरुषेयत्व मानकर उनका नित्यस्व स्थापित किया । मीमांसकसम्नत शब्दांनत्यत्वप नैयायिकों को स्वीकार्य नहीं था । उनके अनुसार कृतक होने के कारण शब्द अनित्य है । अतः मीमांसकों के शब्दनित्यत्व-पक्ष को परिहार कर शब्दानित्यत्व पक्ष को सुदृढ़ करने के लिए वार्तिककार ने शब्द के भेदों को कर्तृपरक बतलाया है । वार्तिककारादि से पूर्व बौद्धों और मीमांसकों का वेदप्रामाण्य को लेकर शास्त्रार्थ प्रचलित था । वेदों को प्रमाण मानने के लिये मीमांसकों ने उनका अपौरुषेयत्व स्वीकार किया, बौद्धों ने अपौरुषेयत्व का प्रबल तकों से खण्डन किया । दोनों के संघर्ष को देखकर नैयायिकों ने वेदप्रामाण्य के लिये ईश्वरप्रणीतत्व को आधार बनाया । नैयायिक तर्कों द्वारा विषय का परीक्षण करते हैं । नैयायिकों को वेदों के कर्तृवपक्ष में तर्क संगति दिखाई दी, अपौरुषेयत्व में नहीं । अपौरुषेयता न मानने से वे अन्धालुता के देष से बच जाते हैं और ईश्वरप्रणीतत्व स्वीकार करने से वेदप्रामाण्य की रक्षा भी हो जाता है । वार्तिककार ने नैयायिकों के पौरुषेयत्वपक्ष को ध्यान में रखते हुए दृष्टार्थ तथा अष्टार्थ पद का तत्यवक्तृपरक निर्वचन किया है । 1. न्यायसार, पृ. २९ 2. न्यायभाष्य, ११११८ 3. न्यायवार्तिक, १1११८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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