________________
आगमप्रमाणनिरूपण
१९१
आचार्य भासर्वज्ञ को हष्टार्थ का अर्थ भाष्यकार के अनुसार विषय की दृष्टि से अभीष्ट है, जैसाकि उनके 'तत्र दृष्टार्थानां वाक्यानाम् इम प्रयोग से ज्ञात होता है । दृष्टार्थक तथा अष्टार्थक द्विविध वाक्यों में से दृष्टार्थक वाक्यों के प्रामाण्य का निश्चय ज्ञाता पुरुष को सफल प्रवृत्ति से होता है। अर्थात् यदि किसी ने कहा है कि घर में पांच फल रखे हुए हैं, इस वाक्य से घर में पांच फलों के होने का ज्ञान प्राप्त कर पुरुष घर में जाता है और पांच फल मिल जाते हैं, तो सफल प्रवृक्ति. द्वारा 'गृहे पंच फलानि सन्ति' यह वाक्य प्रामाणिक है, यह निश्चय हो जाता है। और यदि घर में पांच फलों की प्राप्ति नहीं होती तो ज्ञाता की असफल प्रवृत्ति से उस वाक्य का अप्रामाण्यनिश्चय हो जाता है। स्वर्गकामो यजेत' इत्यादि अदृष्टार्थक वाक्यों में फल के अदृष्ट होने से उसकी प्राप्ति की संभावना भी नहीं है । अतः सफल प्रवृत्ति द्वारा उसके प्रामाण्य का निश्चय न होने से आप्तोक्तता ही उसके प्रामाण्य की निश्वायिका है।
अदृष्टार्थक वाक्यों के प्रणेता अर्थात वक्ता का प्रत्यक्ष न होने से आप्तोतः त्वेन भी प्रामाण्य संभव नहीं है, इस आशंका का समाधान करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है कि 'पुत्रकामो यजेत' इत्यादि वाक्यों के फल के दृष्ट होने से पुत्रेष्टि करने पर पुत्ररूप फल की प्राप्ति हो जाती है और सफल प्रवृत्ति द्वारा उन वाक्यों का प्रामाण्यनिश्चय हो जाता है । 'पुत्रकामो यजेत' इत्यादि वाक्यों के प्रणेता अतीन्द्रियार्थदर्शी होने से परम आप्त पुरुष हैं । अतः उन अतीन्द्रियार्थदर्शी पुरुषों द्वारा प्रणीत सारे ही वाक्य प्रामाणिक हैं, इस प्रकार आप्तोक्तत्वेन सारे ही अदृष्टार्थक वैदिक वाक्यों के प्रामाण्य का निश्चय उपपन्न है। इस रीति से वेदों को ईश्वर पुरुष से प्रणीत मानने पर भी उनमें आप्तोक्त वेन प्रामाण्य का ज्ञान संभव है।
वर्णनित्यता का निराकरण मीमांसक वेदों को अपौरुषेय मानकर नित्यत्वेन उनमें प्रामाण्य मानते हैं, वह संभव नहीं, क्योंकि वाक्यों के नित्य होने में कोई प्रमाण नहीं मिलता । अभिप्राय यह है कि वाक्य या पद वर्णो से भिन्न नहीं है । वर्णसमूह पद तथा पदसमूह वाक्य कहलाता है और समूह अवयवों से भिन्न नहीं होता । अतः वाक्य वर्णरूप हैं और वर्ण उत्पाद-बिनाशशाली होने से अनित्य हैं। यदि वर्गों को नित्य भी माना जाय, तो भी वेद का प्रामाण्य सिद्ध नहीं होता, क्योंकि वर्णनित्यत्वेन वेद का प्रामाण्य मानने पर सभी लौकिक वाक्य भी प्रमाण होने लग जायगे। तात्पर्य यह है कि 'य एव वेदे वर्णाः त एव लोके' इस प्रत्यभिज्ञा के बल से लौकिक व वैदिक वर्ण एक हैं। यदि वर्णनित्यत्व के कारण वेद का प्रामाण्य माना जाता है, तो लोकक वाक्यों का भी प्रामाण्य मानना होगा और लौकिक वाक्य सभी प्रमाण नहीं हैं,
1. न्यायसार, पृ. २९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org