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________________ कथानिरूपण तथा छल... १५९ दृष्टान्त का कथन करने पर दृष्टान्तधर्म के विपर्यय अर्थात् प्रतिष्टान्तधर्म के भव से वादिप्रतिपादित धर्म का जो प्रतिषेध किया जाता है, उन्हे क्रमशः साधर्म्यसम और वैधय॑सम कहते हैं। जैसे-वादी द्वारा 'अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् पटवत्' इस प्रकार शब्द में अनित्यत्वसिद्धि के लिये अन्यव्याप्ति के उदाहरण का कथन करने पर प्रतिवादी उसके पक्ष का खण्डन करता है कि यदि अनित्य पट से समानता के कारण शब्द को अनित्य माना जाता है, तो नित्य आकाश से अमूर्तत्वरूप समानता के कारण शब्द को नित्य क्यों न माना जाय ? अनित्य पट से साधर्म्य के कारण शब्द को अनित्य ही माना जाय, नित्य आकाश से साधर्म्य होने पर भी शब्द को नित्य नहीं माना जाय-इस प्रकार शब्द और पट के कृतकत्वरूप साधर्म्य के आधार पर शब्द को वादी द्वारा अनित्य बतलाने पर प्रतिवादी शब्द और आकाश में अमूर्तत्वसाधर्म्य से शब्द को नित्य बतलाता है । साधर्म्य से प्रयुक्त हेतु का साधर्म्य हे प्रतिषेध करने के कारण यह साधर्म्यसम जाति कहलाती है। इसी प्रकार नित्य आकाश से अमूर्तत्व साधर्म्य के बल से जब प्रतिवादी शब्द के अनित्यत्व का खण्डन करता है, तो वादी अपने पक्ष को पुनः सिद्व करने के लिये 'यन्नित्यं तदकृतकं दृष्टं यथाकाशम्' इस प्रकार वैधर्म्य अर्थात् व्यतिरेका व्याप्ति से साधन का प्रयोग करता है। तब प्रतिवादी भी शब्द को नित्य सिद्ध करने के लिये कहता है कि यदि नित्य आकाश से वैधम्ये के कारण शब्द को अनित्य मानते हो, तो अनित्य घट के साथ शब्द के नीरूपत्व तथा अमूर्तत्वरूप वैधर्म्य के कारण शब्द को नित्य मानना चाहिये । प्रतिवादी का अनुमानवाक्य 'नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात, यदनित्यं तन्मूर्त दृष्टं तथा घटः' इत्याकारक है। इस मान्यता में कोई विशेष हेतु दृष्टिगोचर नहीं होता है कि निय आकाश से कृत. कत्वरूप वैधर्म्य के कारण शब्द अनित्य है और अनित्य घटादि से अमूर्तस्वरूप बैधयं के कारण नित्य नहीं । इस प्रकार नित्य आकाश से वैधर्म्य ( कृतकत्व) के कारण वादी द्वारा शब्द को अनित्य सिद्ध करने पर प्रतिवादी अनिय घट स वैधर्म्य (अमूर्तत्व) के बल से शब्द के अनित्यत्व का खण्डन करता है, अतः यह वैधर्म्यसम जाति कहलाती है। इन दो जातियों का समाधान प्रस्तुत करते हुए भासर्वज्ञ ने कहा है'अविनाभाविनः साधर्म्यस्य वैधर्म्यस्य च हेतुत्वाभ्युपगमादप्रसंगो धूमादिवदिति ' । अविनाभूत् अर्थात् पंचरूपोपपन्न हेतु से ही किसी साध्यविशेष की सिद्धि होती है, अन्य से नहीं । जैसे-अग्निमान् समस्त महानसादि सपक्षों से साधर्म्य के कारण तथा अग्निहित समस्त महानसादि विपक्षों से वैधर्म्य के कारण धूम से ही पर्वतादि पक्ष में अग्निमन्त्र की सिद्धि होती है। अर्थात् 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निः, यथा महानसे' 'यत्र वह्वयभावस्तत्र धूमाभावः यथा महादेः' -इत्याकारक 1. न्यायसार, पृ. १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002638
Book TitleBhasarvagnya ke Nyayasara ka Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshilal Suthar
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, & Philosophy
File Size14 MB
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